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नृत्यभूमि पर कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। रूपकोशा की दासियों ने प्रार्थना प्रस्तुत की। अनेक वाद्य एक साथ बज उठे। दीपमालिकाएं जगमगा उठीं।
प्रार्थना सम्पन्न हुई।
मगध-सम्राट्, संगीताध्यक्ष आचार्य पुंडरीक मंच पर आए और बोले-'आज मगध-सम्राट् सारी जनता के सम्मुख सुन्दरी देवी रूपकोशा को राजनर्तकी के पद पर प्रतिष्ठित कर रहे हैं। देवी रूपकोशा आचार्य कुमारदेव की शिष्या हैं। संगीत, कला, नृत्य और कामविज्ञान में इनका नैपुण्य बेजोड़ है। देवी रूपकोशा षोडशी हैं। यह नृत्यकला, संगीतकला
और चित्रकला आदि में पारंगत हैं। आज इनके नैपुण्य का आप सबको परिचय प्राप्त होगा। अब रूपकोशा अपना 'अभिसारिका' नृत्य प्रस्तुत करेंगी, फिर रूपकोशा स्वयं 'जय' राग में एक सुन्दर गीत गाएंगी। इस प्रकार अन्यान्य गीत और नृत्य भी प्रस्तुत होंगे और अन्त में देवी रूपकोशा 'कंसवध' का नृत्य करेंगी।'
सबकी आखें रंगमंच पर अपलक बन गई थीं। परदा उठा।
एक सुन्दर दृश्य सामने आया। बहुत दूर नदी का एक किनारा दिख रहा था। पास में छोटे-छोटे पौधे खिल रहे थे। इतने में ही वहां एक युवक राजकुमार आया। उसके हाथ में धनुष था। वह शिकार के लिए धीरे-धीरे चरण रखता हुआ आगे बढ़ रहा था। उसने चारों ओर देखा । धनुष पर तीर चढ़ा हुआ था, पर उसे निराशा का अनुभव हो रहा था।
स्थूलभद्र भी प्रेक्षक के रूप में वहां उपस्थित थे। उनके पीछे उद्दालक बैठा था। उसने पुरुष वेश में अपनी प्रियतमा चित्रा को पहचान लिया।
नृत्यभूमि पर राजकुमार नदी की ओर बढ़ा । वह एक स्थान पर रुक गया। उसका अंग-विन्यास बता रहा था कि वह मृगया न मिलने से निराश हो रहा है।
रूपकोशा नृत्यभूमि पर आयी। उसके चरण मचलते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़े।
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आर्ये स्थूलभद्र और कोशा
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