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१४. अभिसारिका
आज आश्विन पूर्णिमा है।
भारतीय कला-समृद्धि का आज पूजन होगा।
सूर्योदय से पूर्व स्नान, पूजन आदि नित्य कर्म से निवृत्त होकर कोशा अपनी दासियों के साथ प्रसाधन खण्ड में सोलह शृंगार कर रही है। उसने श्वेत रेशमी वस्त्र धारण किए। रत्नजटित कटिमेखला पहनी। बाजूबंध में हीरे चमक रहे थे। हीरों के कंकण, हीरा, नीलम और मुक्ता की मालाएं पहनीं। उस समय ऐसा लग रहा था मानो स्वर्गलोक की उर्वशी कोशा के रूप में यहां उपस्थित हो गई है।
चित्रा कोशा के कपाल पर कमल के चित्र बना रही है। हंसनेत्रा उसके प्रवाल तुल्य चरणों में अलक्तक लगा रही है और माधवी उसके कामदेव के तीर समान नयनों में अंजन की रेखा कर रही है।
रूपकोशा का यौवन आज समस्त समृद्धि से मानो विश्व पर विजय प्राप्त करने की तमन्ना लिये हुए है।
शोभा-यात्रा निकली।
रूपकोशा का सौन्दर्य देखकर लोकनयन स्तब्ध हो रहे थे। नगर की नारियां भी अपने-अपने वातायनों से रूपकोशा पर फूलों की वर्षा कर रही थीं। उसका रूप देखकर वे सब हतप्रभ थीं।
वह दिन बीता। रात्रि का प्रथम प्रहर प्रारम्भ हुआ।
सम्राट् के भव्य रंगमंच के समक्ष हजारों-हजारों लोग उपस्थित हुए। वे आज अद्भुत 'अभिसारिका' नृत्य देखने की तमन्ना लिये बैठे थे। आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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