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अभी तक कोशा ने संसार देखा ही नहीं था। अभी वह प्रथम यौवन के प्रथम सोपान पर मदभरी स्वप्निल आशाएं लेकर खड़ी थी। अभी यौवन तक तो माता के लाड-प्यार के भवन की चहारदीवारी के बीच ही उसने संगीत और कला की साधना की थी।
विश्व के अरूप माधुर्य से वह परिचित नहीं थी।
यौवन का आघात अभी उसे लगा नहीं था। पुरुषों की दृष्टि में अभी चढ़ी नहीं थी।
पाटलीपुत्र के रसिक युवक उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे और उसको देखने के लिए तरसते रहते थे। लोगों के मन में रूपकोशा की सौन्दर्यमूर्ति विराजमान हो रही थी। धनपति, सार्थवाह, राजपुरुष, सेनानायक, सामन्त, छोटे-बड़े राजा तथा समृद्धि के शिखर को छूने वाले धनवान कोशा की प्रशंसा सुनकर ही उसके यौवन-प्रदीप को चमकाने के लिए तत्पर हो रहे थे।
अभी तक कोशा विश्व के विविध रंगों को देख नहीं पायी थी। उसका समूचा विश्व अपना भवन ही था।
और इस प्रकार विश्व के परिचय से अस्पृश्य कोशा की प्रथम दृष्टि एक विरागी नवयुवक पर पड़ी-महामात्य के पुत्र पर। यदि आर्य स्थूलभद्र को अनुरक्त करने की शक्ति कोशा के प्राणों में हो, स्थूलभद्र को अपने आप में समाहित करने का आकर्षण अपने रूप-सौन्दर्य में हो, स्थूलभद्र को अपने कोमल बाहुपाश में जकड़कर रखने का बल उसके प्रेम में हो, तब ही... तब ही वह उस विरागी हृदय में राग के रस-मधुर संवेदन प्रकट कर पायेगी, अन्यथा नहीं।
ओह ! पर यह सब कैसे घटित हो? क्या कोई उपाय नहीं है?
शिविका की गति के साथ-साथ कोशा के विचारों की गति भी द्रुत हो गई।
चित्रा ने एक-दो बार देवी रूपकोशा को कुछ कहा था, परन्तु कोशा ने कुछ भी नहीं सुना...क्योंकि वह किसी में खो गई थी...किसी में समा गई थी....किसी से बंध गई थी।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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