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________________ किन्तु आर्य स्थूलभद्र भगवान की स्तुति में एकरस हो रहे थे। नवोदित यौवना और उसको शतगुणित करने वाले रत्नालंकारों से अपने अद्भुत रूप को सहलाती हुई रूपकोशा आर्य स्थूलभद्र से दृष्टिपात के लिए आतुर हो रही थी। उसका हृदय पुकार उठा-धन्य साधना! धन्य यौवन! परन्तु क्या इस यौवनमूर्ति पर विजय पायी जा सकेगी? क्यों नहीं? जो आर्य स्थूलभद्र को वश में करने में असमर्थ हो, उसे भारत की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी कहलाने का अधिकार नहीं है। वह अपात्र है। इतिहास उसकी कीर्ति-गाथा को कभी अंकित नहीं कर पायेगा। देवी के मनोभावों को जानकर चित्रा मृदु स्वर में बोली- 'देवी!' 'हां', कहती हुई कोशा आर्य स्थूलभद्र को अपने नयनों से पीती हुई वहां से घर की ओर चल पड़ी। आर्य स्थूलभद्र अपनी मस्ती में स्तवना कर रहे थे___'सिवमयल मरुयमणंत मक्खय मव्वावाह....' आत्मा की समस्त भावनाओं को राग और स्वरों में स्थिर कर देवी कोशा शिविका में आ बैठी। उसके कानों पर विश्व का कोई भी कलरव प्रभावी नहीं हो पा रहा था। उसे यही प्रतीत हो रहा था कि विश्व में वीणा का नाद और विभास राग के स्वर ही सब कुछ हैं, प्रभावोत्पादक हैं। वह आयी थी कुछ प्राप्त करने, किन्तु लग रहा था कि वह वहां कुछ छोड़कर चली जा रही है। क्या छोड़ गई, इसका उसे भी पता नहीं था। वह आयी थी यहां कुछ देने, किन्तु लगा कि वह कुछ लेकर गई है। क्या लेकर गई है, उसे भी ज्ञात नहीं था। देवी रूपकोशा के प्राणों में एक निश्चय हो चुका था कि विश्व में आर्य स्थूलभद्र ही एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिनके चरणों में मेरा नारीत्व शोभा पा सकता है....मेरा यौवन अभिनन्दित हो सकता है। परन्तु यह कैसे हो? रूपकोशा का मन इसका उत्तर देने में असमर्थ था। आर्य स्थूलभद्र और कोशा ८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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