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रूपकोशा के नयन प्रभुमूर्ति के समक्ष स्थिर हो गए। चित्रा और माधवी के नयन भी अपलक बन गए।
आर्य स्थूलभद्र का वीणा-नाद चारों दिशाओं को भर रहा था और स्तुति-वचन एक अनहद आकर्षण पैदा कर रहा था।
अभयदयाणं चक्खुदयाणं....
अप्पडिहयवर नाणदंसण धराणं.... रूपकोशा नमस्कार कर उठी। मुक्ता का स्वस्तिक, जिसकी रचना अभी-अभी कोशा ने की थी, उसे देख हंस उठा। इतने में ही कोशा की दृष्टि भगवान से हटकर भक्त पर जा लगी।
किन्तु आर्य स्थूलभद्र स्थिर नयन, स्थिर भाव और स्थिर स्वरों से प्रभु की स्तुति में लवलीन थे
वियट्टछउमाणं....
....सव्वदरिसीणं.... यौवन के रस से भरपूर रतिदेव का भी परिहास करने वाले, अपराजेय पौरुष की प्रतिमूर्ति आर्य स्थूलभद्र को देवी कोशा अपलक नयनों से निहार रही थी।
वह स्वयं भारत की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी है, भारत की बेजोड़ कलालक्ष्मी है, मगधेश्वर की नृत्यांगना है और चक्रवर्ती की समृद्धि के समान सम्पत्तिशालिनी है। यह सब वह प्रस्तुत क्षण में भूल गई। अब तो वह केवल एक नारी है-आशा और निराशा के बाहुपाश में जकड़ी हुई एकमात्र नवयौवना नारी है।
परन्तु आर्य स्थूलभद्र ने एक अनंग सुन्दरी पर एक बार भी दृष्टि क्यों नहीं डाली?
ओह ! कोशा का देव-दुर्लभ लावण्य क्या इस नरपुंगव को आकर्षित करने में अपूर्ण है ? क्या विश्वामित्र को पागल बना देने वाली मेनका इससे अधिक भव्य और सुन्दर थी? क्या आर्य स्थूलभद्र चेतनाविहीन हैं या दृष्टिविहीन हैं?
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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