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________________ वीणा की मृदु- गम्भीर ध्वनि दिव्य ध्वनि की तरह पड़ी और साथ ही साथ गायक का मधुर राग भी सुनाई दिया। रूपकोशा के प्राणों में कंपन हुआ। क्यों ? संकोच और लज्जा का कारण क्या है ? वह पहली बार अपने स्वामी के घर थोड़े ही जा रही है ? इतना होने पर भी उसके मुंह पर अभिसारिका की ऊर्मिल रेखाएं क्यों खचित हो गईं? यह प्रश्न मानवजाति के जन्म के साथ ही उभरा प्रतीत होता है । अनेक प्रश्न ऐसे होते हैं, जिनके आदि - अन्त का इतिहास ज्ञात ही नहीं होता। ऐसे शाश्वत प्रश्न का कभी कोई निश्चित उत्तर मिला ही नहीं आज तक। प्रश्न में ही उत्तर सन्निहित होता है, परन्तु मनुष्य प्रश्न का हृदय नहीं छू पाता । चित्रा और माधवी के हाथ में एक-एक स्वर्ण थाल था। उसमें स्वर्ण मुद्राएं, मुक्ता, पुष्पमाला और उत्तम फल आदि थे। कांपते हुए हृदय से तथा नृत्य की मंथर गति से चलती हुई कोशा मंदिर के रंगमंडप में आयी । सामने ही गर्भगृह में महावीर प्रभु की मनोहारी प्रतिमा स्थापित थी । प्रभु के दर्शन होते ही कोशा का मस्तक स्वतः नम गया। आर्य स्थूलभद्र भक्तिरस में लीन होकर गा रहे थे .....पुरिसोत्तमाणं पुरिससीहाणं, पुरिसवर पुंडरीयाणं..... पुरिसवर गंधहत्थीणं...... रूपकोशा के प्राणों में 'प्रार्थना' नृत्य सजग हो उठा। प्रभु के सम्मुख फल-फूल अर्पित कर उसने लाक्षणिक वंदना की। उस समय स्थूलभद्र एकाग्रचित्त से भक्तिपूर्वक गा रहे थे लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं.... आर्य स्थलभट और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only ७८ www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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