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'अच्छा, जैसी तेरी इच्छा। हां, एक बात का ध्यान रखना। महामात्य के जिनालय में तू पहली बार जा रही है, इसलिए वहां रिक्त हाथ से मत जाना। वहां मुक्ताओं का स्वस्तिक करना और स्वर्ण-मुद्राओं को वहां रखना-बिखेरना।'
'जैसी आपकी आज्ञा। आप यह सारी व्यवस्था कर दें।' कहकर कोशा उठी।
'उठी क्यों?' मां ने कहा। 'नृत्यगृह में आवृत्ति करती हुई ही यहां आयी हूं।' 'चल, मैं भी आ रही हूं। चित्रलेखा क्या कर रही है?' 'नृत्यगृह में ही है।'
'बेटी! चित्रा के बालस्वभाव का पूरा ध्यान रखना'-कहकर देवी सुनन्दा उठी।
'मां! इसीलिए तो मैं आपसे प्रार्थना कर रही हूं कि आप पांच-दस वर्ष और घर में रहें।'
'पगली! मेरे से भी अधिक तू चित्रलेखा को कला-निपुण बना सकेगी'- कहकर देवी सुनन्दा हंसने लगी।
दोनों नृत्यगृह की ओर चलीं।
सूर्य की किरणों के पड़ते ही महामात्य शकडाल के जिन-प्रासाद का स्वर्णशिखर झिलमिल करने लगा। __महामंत्री अभी-अभी पूजा से निवृत्त होकर राजभवन की ओर गए हैं।
आर्य स्थूलभद्र नित्य-नियम के अनुसार अष्ट प्रकार की पूजा सम्पन्न कर मंदिर के प्रांगण में बैठे-बैठे भक्तिपूर्वक चैत्यवादन कर रहे हैं। उनके हाथ में महार्घवीणा थी और पास में बैठा एक मृदंगकार ताल दे रहा था।
इसी समय रूपकोशा की शिविका मंदिर के द्वार पर पहुंची। कोशा नीचे उतरी और जिनालय के सोपान पर अपने चरण रखे। उसके कानों में
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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