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'तो मैं उद्दालक को....
'पगली कहीं की! तुझे उद्दालक से इतना मात्र जानना है कि स्थूलभद्र कब वीणा बजाते हैं?'
चित्रा मौन रही। 'समझी?' 'हां।' 'मेरी इस इच्छा को अपने तक ही सीमित रखना।' 'जी...' 'तो तू आज उद्दालक से मिलने जाना।' कोशा ने कहा। प्रियतम से मिलने की आशा चित्रा के नयनों में साकार हो उठी।
दूसरे दिन प्रात:काल के समय कोशा संगीत की आवृत्ति कर रही थी। उसका मन चित्रा में लगा हुआ था। किन्तु चित्रा अभी तक नहीं आई थी।
माधवी से पूछने पर उत्तर मिला-चित्रा आज अपनी मां के पास रह गई है।
वाद्यकार भी कोशा की मानसिक दुर्बलता को जान गए। आसावरी स्वरों के साथ भैरवी का रंग आ जाता।
सोमदत्त ने सोचा-जन्म से ही जिसे संगीत का वरदान प्राप्त है, जिसने कभी दोष नहीं दिखाया, आज वह कोशा ऐसा क्यों कर रही है ?
सोल्लक से रहा नहीं गया। उसने पूछा- 'देवी!' कोशा ने सोल्लक को प्रश्नभरी नजरों से देखा। 'राग का खंडन क्यों हो रहा है?' 'तेरी वीणा में अब प्राण नहीं रहा, सोल्लक!' उसे ऐसा उत्तर मिलेगा, ऐसी आशा नहीं थी। सूर्योदय हुआ।
संगीत की आवृत्ति का पूरा किए बिना ही कोशा प्रात:कर्म से निवृत्त होने के लिए चली गई। कोशा ने स्नान किया । वस्त्रखंड में अलंकार करने गई। इतने में चित्रा वहां आ पहुंची। चित्रा को देखते ही कोशा ने रोष से कहा- 'अभी तक....?' ७३
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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