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११. नृत्य और वीणावादन
आज नृत्य की परीक्षा हुए आठ दिन बीत चुके हैं। मगधेश्वर और मगधेश्वरी की प्रशंसा प्राप्त किये आठ रात्रियां व्यतीत हो गई हैं। मगधेश्वर के मुंह से प्रशंसा-वाक्य-'कोशा! त भारत की सर्वश्रेष्ठ नृत्यांगना है'-के उच्चारण को आज चोंसठ प्रहर हो गए हैं।
आचार्य कुमारदेव को अपनी साधना की सफलता पर सात्त्विक गर्व
है।
देवी सुनन्दा अपनी पुत्री कोशा को कलामूर्ति के रूप में देखकर अपार आनन्द का अनुभव कर रही है।
चित्रा, माधवी और हंसनेत्रा आदि सभी सखियां प्रफुल्लित हैं-उनकी प्रिय सखी ने विजय प्राप्त की है।
सोमदत्त आदि वाद्यनियोजक भी कृतार्थ हुए – भारतवर्ष की सर्वोत्कृष्ट नर्तकी के वाद्यकर होने के गर्व से।
चाणक्य भी प्रसन्न हो रहा है-अपने प्रयत्न में सफल होने की आशा से।
किन्तु रूपकोशा के हृदय में गत आठ दिनों से एक वेदना दर्द भरे स्पन्दन पैदा कर रही थी....उसको न आनन्द था, न विजय का हर्ष था और न कला का गर्व था।
ऐसा क्यों हुआ?
देवी सुनन्दा ने इसका कारण खोजा, पर वह भी असफल रही। कोशा की सखियों को भी रहस्य का पता नहीं लगा।
वैभव के शिखर पर एकाधिपत्य रखने वाली कोशा को किसी बात की चिन्ता सता रही थी।
आर्यस्थूलभद्र और कोशा
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