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अचानक उड़ी....वह जागृत हुई। उसके नयन स्वामी को देखने के लिए मचल रहे थे।
स्वामी नहीं हैं। सिद्धार्थ नहीं रहे। अंधेरी रात.....भयंकर तूफान।
चित्रा धरती पर पछाड़ खाकर गिर पड़ी। बालक शय्या पर पड़ा रो रहा है।
और.... सूचीभेद अंधकार छा गया। प्रेक्षक कुछ भी नहीं देख पा रहे थे।
अचानक दीपमालिकाओं पर पड़ा आवरण हटा और दृश्य का परिवर्तन स्पष्ट दीखने लगा।
नदी बह रही है....उसके तट पर सिद्धार्थ अभय भाव से खड़ा है। उसने एक-एक कर सभी अलंकार उतारे...
सारा वातावरण गंभीर और करुण बन गया। कुमार की मुद्राएं मुक्ति का मुक्त काव्य सुना रही हैं। वाद्य के नियोजकों ने 'विभास' के स्वर उभारे।
सिद्धार्थ के वेश में कोमलांगी कोशा ने मुक्ति का नृत्य प्रारम्भ किया। ऐसा लगा मानो सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण में संसार के सारे परिताप और दु:ख, विश्व की सारी आकांक्षाएं समाहित हैं।
नृत्य में वेग आता है। सर्प की केंचुली की भांति संसार व्यर्थ हो रहा है।
कोई काव्य नहीं, कोई राग नहीं, कोई कल्पना नहीं-केवल मुक्ति और त्याग का ही साम्राज्य है!
कोशा के वाद्यनियोजक वाद्यों में से एक महाध्वनि निकालते हैं'बुद्धं सरणं गच्छामि।'
परदा गिरता है। साम्राज्ञी महादेवी सुप्रभा के नयनों से आंसू छलक उठे।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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