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कुमार सिद्धार्थ की भूमिका करने वाले नृत्यकार की अंगुलियां और अंगविन्यास एक शाश्वत सत्य का प्रकट कर रहा था-संसार मिथ्या है, मिथ्या है, माया के बन्धन को तोड़े बिना कोई भी व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता।
आचार्य कुमारदेव आश्चर्यचकित नयनों से देख रहे थे। सिद्धार्थ के वेश में कोशा को पहचान पाना कठिन हो रहा था।
महामंत्री शकडाल और चाणक्य ने पलंग पर निद्रालीन सुन्दरी को ही कोशा मान लिया था।
मगधेश्वर ने आतुर नयन नृत्यकार की मुद्राओं की गहराई नाप रहे थे। साम्राज्ञी सुप्रभादेवी भयभीत थी....क्या ऐसी सुन्दर नारी का और ऐसा मनोहर बालक का त्याग किया जा सकता है ? निष्ठुरता! निष्ठुरता ! आदमी कितना निष्ठुर हो सकता है ?
उस समय कुमार सिद्धार्थ के समक्ष संसार के सभी आकर्षण स्फुट होते हैं, किन्तु कुमार की भावभंगिमा में कोई भी अन्तर नहीं आया....उसकी भंगिमा स्पष्ट कह रही थी कि उसमें बंधन को तोड़ने की उत्कट अभिलाषा है, प्रेरणा है।
सोहनी राग के स्वर उमड़ते हैं।
कुमार सिद्धार्थ के मन पर विजय पाने के लिए संसार की ममता ललचा रही है।
सिद्धार्थ की अन्तरात्मा का निश्चय विजयी बना।
नृत्यकार के नयनों से तेज बरस रहा था। इस तेज के लिए समस्त संसार की पूरी ममता और लोलुपता मृतप्राय: हो जाती है।
नृत्यकार के अंग-प्रत्यंग विजय के उल्लास में नाच रहे थे....उसके आभूषण भी नाच रहे थे....सिद्धार्थ का हृदय मचल उठा और अंतिम बंधन भी टूट पड़ा। सिद्धार्थ घर से निकल पड़े।
नृत्यभूमि पर धूम्रांधकार छा गया....बादल कड़कने लगे....वातायन से वायु से प्रचंड झौंके आने लगे...शिशु चौंक उठा....यशोधरा की नींद
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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