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आचार्य कुमारदेव मगधेश्वर की आज्ञा लेकर नृत्यशाला में गए। अर्ध घटिका के बाद आचार्य वहां से लौटे और फिर महाराज और महारानी को साथ ले गए।
महामंत्री चाणक्य, महाप्रतिहार तथा दूसरे अतिथि भी साथ-साथ चले। सभी अतिथि नृत्यमंच के समक्ष रखे हुए आसनों पर बैठ गए।
आचार्य सोमदत्त ने इशारा किया। वाद्य बज उठे। नृत्यमंच का परदा उठा। दो कुमारिकाओं ने मंच पर स्थित नारद और सरस्वती की प्रतिमाओं पर फूलमालाएं डालीं। फिर दोनों बालिकाएं मंच से नीचे आयीं और सम्राट् तथा साम्राज्ञी को फूलमालाएं पहना दीं।
सरस्वती और नारद की स्तुति प्रारम्भ हुई। देवकल्याण राग की छाया समूची नाट्यशाला में फैल गई। स्तुति सम्पन्न हुई।
अचानक दीपमालिकाओं पर श्यामवस्त्र का आवरण आ गया। नृत्यभूमि में अंधकार व्याप्त हो गया। रत्नरेखाओं वाला परदा ऊपर उठा।
ओह ! यह क्या ? एक मनोहर शयनगृह, रत्नजटित पलंग वातायन के पास बिछा पड़ा था। वातायन से चन्द्रिका छिटक रही थी। शय्या पर एक सुन्दरी निद्राधीन थी। उसकी बगल में एक छोटा बच्चा सो रहा था। शय्या के पार्श्व में एक पुरुष आतुर नयनों से सुन्दरी को निहार रहा था।
वह पुरुष धीरे-धीरे पीछे सरका । वह नृत्य की मुद्रा में था। देश राग की मृदु-मधुर छाया पुरुष के मनोभावों को विकसित कर रही थी।
दस पैर पीछे सरकने के बाद पुन: शय्या की ओर बढ़ा। उसके नयनों में क्षणभर के लिए प्रेम उमड़ता-सा दीखता है और क्षणभर में त्याग उमड़ता-सी दीखता है।
देवी यशोधरा निद्रालीन थी। छोटा बच्चा छाती से चिपककर सुख की नींद ले रहा था।
कुमार सिद्धार्थ के नयन चिर-विरह की वाणी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। वे प्रेम की अमृतधारा वर्षा रहे थे, त्याग की किरणें बिखेर रहे थे।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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