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महाप्रतिहार ने मगधपति के आने की सूचना दी। सभी दास-दासी व्यवस्थित हो गए। देवी सुनन्दा अपनी परिचारिकाओं को साथ ले भवन से नीचे उतरी।
मगध-सम्रटा का रथ देवी सुनन्दा के विलासभवन में प्रविष्ट हुआ।
राजचिह्न धारण करने वाले मंगलपाठकों ने मंगलवाक्य कहे। सम्राट् का रथ थमा। घोड़े हिनहिनाने लगे। वर्षा हो रही थी। छत्रधारी तैयार खड़े थे। देवी सुनन्दा ने सम्राट् और साम्राज्ञी का मोती और स्वर्ण-पुष्पों से वर्धापन कर प्रणाम किया।
मगधेश्वर के पीछे महामंत्री का रथ था। देवी सुनन्दा ने उनका भी सत्कार किया।
सभी अतिथिगृह में आए।
आचार्य कुमारदेव ने मगध-सम्राट् को आशीर्वाद दिया। साराभवन 'कनक प्रसवा' की सौरभ से महक उठा।
हिमकपूर, पर्णकपूर, कस्तूरी, गंधमार्जार, वर्णकुंकुम, चन्दन, अगर, कृष्णागरु, देवदारुव, पद्मक, गंधराजगुग्गुल, कुन्दरु, श्रीवास, जावित्रीफल आदि-आदि द्रव्यों के मिश्रण से बना हुआ महापराजित धूप की लहरियां चारों ओर फैल रही थीं। उससे वर्षा के विष का विनाश हो रहा था। वातावरण पवित्र हो रहा था।
अतिथिगृह में मगधेश्वर एक स्वर्ण-आसन पर बैठे थे। उनके पीछे परिचारिकाएं चमर इला रही थीं। महाप्रतिहार विमलसेन हाथ में तलवार लेकर खड़ा था।
देवी सुनन्दा की दासियां स्वर्णपात्र में दिव्य पानक लेकर आयीं।
महाप्रतिहार ने पानक की परीक्षा की। देवी सुनन्दा ने उस दिव्य पानक के पात्रों को मगधेश्वर और साम्राज्ञी के समक्ष रख दिए।
__ मगधेश्वर ने प्रसन्नता से पानकपात्र स्वीकार किया। साम्राज्ञी ने भी हंसते-हंसते पानक का पात्र ले लिया।
दिव्य पानक में मृगमदयुक्त मैरेय मिश्रित था, इसलिए दूसरे सारे अतिथियों ने कटुतिक्त पानक लिया।
आर्यस्थूलभद्र और कोशा
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