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पास जा बैठे। कुटीर से आचार्य कुमारदेव, संगीताचार्य सुमित्रानन्द, देवी सुनन्दा, रूपकोशा और उसके परिचारक आए और अपने-अपने स्थान पर बैठ गए।
उत्सव प्रारम्भ हुआ। आचार्य के एक शिष्य ने कल्याण-राग का आलाप प्रारम्भ किया ।
उसके बाद आचार्य कुमारदेव मंच पर गए और कल्याण राग के इक्कीस रूपों को प्रकट करते हुए एक गीत प्रारम्भ किया ।
वृद्ध आचार्य ! किन्तु उनके कंठ की मधुरता अक्षुण्ण थी। आचार्य की साधना को देखकर सुमित्रानन्द आश्चर्यमुग्ध हो गए।
सभी की इच्छा को सत्कार देते हुए आचार्य सुमित्रानन्द मंच पर आए। उन्होंने मगधी भाषा में निबद्ध एक गीत गाया। उनका मेघ जैसा स्वरालाप सबके प्राणों का स्पर्श करने लगा । आचार्य कुमारदेव को अपार प्रसन्नता हुई ।
फिर आचार्यदेव के शिष्यों ने षड्राग का एक गीत सामूहिक रूप से गाया ।
आचार्य ने देवी सुनन्दा की ओर देखते हुए कहा - 'पुत्री ! तुमने मगधपति के दरबार में अनेक बार अपनी संगीत-साधना का प्रदर्शन किया है | आज तुमको इस वृद्ध पुत्र के आंगन को मुखरित करना होगा ।'
आचार्यदेव की आज्ञा को शिरोधार्य कर चालीस वर्षीया सुनन्दा मंच पर गई। सबको नमस्कार कर उसने पूर्वी राग में निबद्ध एक संस्कृत काव्य का गान प्रारम्भ किया। देवी सुनन्दा आज अपने धर्मपिता आचार्यदेव के समक्ष गा रही थी । उसमें किसी प्रकार का संकोच नहीं था । उसके प्राणों की भाव- ऊर्मियां मस्त होकर राग की रेखाएं खचित कर रही थीं । पुत्री रूपकोशा आश्चर्यचकित रह गई। उसने इससे पूर्व अपनी मां को इस भव्य कला में इतना पारंगत कभी नहीं जाना देखा था। रूपकोशा के हृदय में हर्ष और उत्साह उमड़ने लगा । आचार्यदेव और सुमित्रानन्द भी अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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