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६. अरणिका
आचार्य कुमारदेव के संगीत-आश्रम में आज संगीत का उत्सव मनाया जा रहा है। शिष्यगण एक छोटी वाटिका में मंच का निर्माण कर, उसे सजा रहे हैं।
मंच को एक मनोहर वनकुंज का रूप दिया गया है। उसमें विविध प्रकार की वल्लरियां, वृक्षपल्लव और पुष्पों के गुच्छे लगाए गए हैं। वह वनकुंज का प्रतिरूप-सा प्रतीत हो रहा है।
मंच के सामने दस-बारह व्यक्तियों के बैठने के लिए काठ के आसन बिछाए गए हैं। मंच पूर्वाभिमुख है और उसका तोरणद्वार अशोक और द्राक्षावल्लरियों से सजाया गया है।
दो दिन के बाद ही तक्षशिला के संगीताचार्य प्रस्थान करने वाले हैं, इसलिए उनकी विदाई के निमित्त यह आयोजन किया गया है। आज के समारम्भ में भाग लेने के लिए देवी सुनन्दा और उसकी अनिन्द्य पुत्री रूपकोशा के अतिरिक्त और किसी भी गृहस्थ को निमंत्रण नहीं दिया गया है। उसमें केवल आश्रम के अन्तेवासी शिष्यगण तथा आगंतुक अतिथियों को ही भाग लेने का निमंत्रण है।
संध्या होते-होते सारी तैयारी हो गई । नृत्य-मंच पर शास्त्रीय पद्धति के अनुसार धूपदानियां और दीपमालिकाएं स्थापित की गई थीं।
आचार्यदेव के केतु नामक शिष्य ने इस नृत्यमंच की शास्त्रीय रचना की थी। मंच पर महार्घवीणा, तरंगवीणा, बांसुरी, तंबूरा, मयूरक, कोकिलतरंग, मृदंग, चक्रनाद आदि तंतुनद्ध, चर्मनद्ध और काष्ठनद्ध वाद्यों का संयोजन किया गया था।
रात्रि के प्रथम प्रहर प्रारम्भ हुआ। मंच की दीपमालिकाएं जगमगा उठीं। धूपदानियों से धूप की लहरें उठने लगीं। आचार्य के शिष्य वाद्यों के
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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