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रात का दूसरा प्रहर बीत गया। देवी सुनन्दा ने अपना गीत पूरा किया। वह अपने स्थान पर आकर बैठ गई।
आचार्य ने मुसकराते हुए कोशा की ओर देखा। वे बोले- 'पुत्री! आज तुझे ऐसा गीत प्रस्तुत करना है, जिसको सुनकर अपने अतिथि तक्षशिला में जाकर भी आज के उत्सव की विस्मृति न कर सकें।'
कोशा ने मृदुस्वर में कहा-'आपकी जैसा आज्ञा।'
कुमारदेव बोले- 'बेटी ! यदि आज तू अरणिका नृत्य करेगी तो वह समयानुकूल होगा। मैं और सुमित्रानन्द-दोनों तेरे नृत्य को वाद्यों के द्वारा अभिनन्दित करेंगे।'
गुरुदेव की इच्छा को मानकर कोशा का चेहरा लज्जा से भर गया। वह बोली- 'नृत्य के अनुरूप वल्कल आदि....'
'बेटी! तू मेरे कुटीर में जा। वहां इसके साधन अवश्य मिलेंगे।' 'जैसी आज्ञा'-कहकर कोशा खड़ी हुई।
संगीताचार्य सुमित्रानन्द एकटक कोशा को देख रहे थे। वे उसके यौवन से छलकते सौन्दर्य को श्रद्धा से पी रहे थे।
चित्रा और माधवी को साथ ले कोशा गुरुदेव के कुटीर में गई। गुरुदेव की आज्ञा से शिष्य केतु भी साथ गया।
कोशा को कुटीर की ओर जाते देख सुमित्रानन्द ने आचार्य से कहा'आपकी शिष्या वास्तव में ही संसार की अद्वितीय सुन्दरी है। आपने अपनी भव्यकला योग्य उत्तराधिकारी को समर्पित की है।'
आचार्य हंसते हुए बोले- 'मुझे ऐसा कोई योग्य शिष्य नहीं मिला.... ‘किंतु आपकी शिष्या पुरुष जैसी ही है'-सुमित्रानंद ने कहा।
कुछ समय बीता। देवी रूपकोशा अरण्यकन्या के वेश में आ पहुंची। उसने सबको नमस्कार किया। गुरु की आज्ञा ले वह मंच पर उपस्थित हुई। आचार्य कुमारदेव और सुमित्रानंद भी मंच पर गए।
आचार्य ने महार्घवीणा हाथ में ली। सुमित्रानंद ने मृदंग लिया।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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