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तो मैं एक निवेदन करता हूं कि आप अपनी ज्ञानराशि ऐसे कुशल व्यक्ति को दे जाएं, जिससे भारतीय संगीत अमर बन सके।'
'तुम्हारी बात सच है। परन्तु विष्णु! ऐसा कोई शिष्य नहीं दिख रहा है, जो मेरी संगीत-साधना को झेल सके। इतने वर्षों की तपस्या के बाद एक शिष्या मिली है और मुझे विश्वास है कि उसने मेरी संगीत-साधना को दीप्त किया है और भविष्य में उसे और अधिक वृद्धिंगत करेगी।'
'शिष्या?' 'हां।'
'मैंने इस विषय में कभी कुछ नहीं सुना।' चाणक्य ने बहाना करते हुए कहा।
'मगधपति की राजनर्तकी सुनन्दा को तुमने देखा है ?' 'हां, एकाध बार देखा अवश्य है।' 'उसकी पुत्री कोशा मेरी शिष्या है।' 'मैंन कोशा को कभी नहीं देखा।' 'कोशा जनता के बीच कभी आयी ही नहीं।' आचार्य बोले। 'आपकी भव्य साधना एक नर्तकी की कन्या के हाथ में ?'
यह सुन आचार्य मुसकराए। वे बोले-'विष्णु! कोशा पवित्र नारीरत्न है। वह अत्यन्त संस्कारी और गुणवती कन्या है। न्याय, तर्क, नीति, कामशास्त्र, संगीत और चित्रकला में निपुण है। पूरे मगध साम्राज्य में उसकी तुलना में कोई नहीं आ सकता। उसकी माता सुनन्दा परम विदुषी है।'
'आपने मुझे आश्चर्यचकित कर डाला'-चाणक्य ने कहा। 'इसमें आश्चर्य जैसा कुछ भी नहीं है।'
'परन्तु किसी एक नर्तकी की कन्या इतनी गुणवती हो सके और आपकी संगीत-साधना को झेल सके, यह आश्चर्य ही है। आपके अतिरिक्त यदि कोई भी व्यक्तिमुझे यह बात कहता तो मैं कभी उस पर विश्वास नहीं करता।'
'विष्णु! वह भारत की श्रेष्ठ सुन्दरी भी है। चक्रवर्ती जैसा वैभव का उपभोग करती हुई भी वह कोशा अपने यौवन को निष्कलंक रख रही है।
आर्य स्थलभट और कोशा
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