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'हां।' 'अच्छा, कोशा को मैंने देखा है।' 'कहां?'
'वह अपने आवास के वातायन से स्वाभाविक रूप से हमारी नौका की ओर देख रही थी। मैंने उस ओर देखा। उसका रूप और लावण्य मुझसे छिपा नहीं रह सका। देवी कोशा निश्चित ही स्थूलभद्र पर विजय प्राप्त करेगी। स्थूलभद्र और कोशा परस्पर परिचित हों, ऐसी योजना बनानी होगी।' चाणक्य ने उत्साह से कहा।
'किन्तु यह अशक्य अनुष्ठान है। कोशा राजनर्तकी बनने वाली है। मगधेश्वर की आज्ञा के बिना कोशा किसी भी पुरुष को अपनी पांखों में नहीं छिपा सकती। मगधेश्वर चाहते हैं कि कला का प्रत्येक अवयव विशुद्ध रहे, वह विकृत न हो। यदि कोशा अपनी पवित्रता से स्खलित होती है तो मगधेश्वर उसे वधस्तंभ पर भेज देंगे।'
'पिताजी! नारी कभी भी अपने नारीत्व को शर्त की बलिवेदी पर नहीं रख सकती। यदि कोशा भव्य नारी होगी तो वह मृत्यु-भय से कभी नहीं डरेगी।'
'मैंने कभी कोशा को देखा नहीं। तू एक बार कोशा की परीक्षा कर ले । कोशा के परिचय से स्थूलभद्र का अकल्याण न हो, यह हमें ध्यान में रखना है।'
'कोशा के शिक्षागुरु तो आचार्य कुमारदेव हैं न?' 'हां।'
'बहुत ही सात्त्विक पुरुष हैं। उनसे मिलकर मैं कोशा के साथ परिचय करूंगा। फिर आगे सोचूंगा कि क्या करना है।' चाणक्य ने कहा।
'उसकी माता अत्यन्त सात्त्विक है।' महामात्य ने कहा। माता के गुण तो पुत्री में आए ही होंगे-चाणक्य ने सोचा। परिचारक ने भोजन के लिए प्रार्थना की।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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