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दो घटिका के बाद महामात्य शकडाल मंत्रणागृह से बाहर आए । महासेनापति अश्व पर बैठकर घर की ओर चल पड़े। भांडागारिक श्रेष्ठी सोमचन्द्र अपनी शिविका में बैठकर चल दिए। यक्षा ने पिताजी को नमस्कार कर कहा'पिताजी! चाणक्य आए हैं।'
'विष्णु कब आया?' महामंत्री के नयन आनन्द से भर गए।
'आप जब मंत्रणागृह में थे, तब । वे आपके विश्रामगृह में बैठे हैं।' यक्षा ने कहा।
'और स्थूलभद्र ?' 'भाई तो अपने एकान्तगृह में...'
'हं, तू मेरे लिए पानक भेज । मैं विश्रामगृह में जा रहा हूं'-कहकर महामंत्री विश्रामगृह की ओर चल पड़े।
चाणक्य गुरुजी की प्रतीक्षा में बैठा था। जैसे ही महामंत्री ने भवन में पैर रखा, चाणक्य तत्काल खड़ा हो गया। महामंत्री ने सम्मुख आकर चाणक्य बोला-'पिताजी, कुशल तो हैं?'
'हां, वत्स! तू राजगृह से कब आया ?'
'सूर्योदय के बाद । मैं पहले आया तब आप राजसभा में गए हुए थे। श्रीचणकमुनि ने आपको धर्मलाभ कहा है।'
'मुनिश्री कुशल तो हैं?'
'हां....इस वर्ष का चातुर्मास वे सुन्दरवन में करेंगे।' चाणक्य ने कहा।
'तब तो उन्हें अति उग्र विहार करना पड़ेगा!'
एक परिचारिका ब्राह्मी-पानक से भरे दो स्वर्णपात्र लेकर आयी। पान करते-करते महामंत्री ने कहा- 'विष्णु! राज्य का कुछ आवश्यक कार्य था, इसलिए मैं राजगृह नहीं आ सका। गांधार देश का प्रश्न अत्यन्त जटिल हो गया है।'
'मैंने सुना है कि आपने गांधार की व्यवस्था के लिए दस हजार सैनिक भेजें हैं।'
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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