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इन विचारों ही विचारों में रात का दूसरा प्रहर बीत गया । वातायन से गंगा का शांत-स्निग्ध प्रवाह दृष्टिगोचर हो रहा था। गगनांगण में तारिकाएं नाच रही थीं। वायु की गति कुछ तीव्र हो गई थी। कोशा ने अपना कोमल शरीर गुलाबी रंग के कौशेय से ढांक लिया। नींद नहीं आयी... स्वप्न आया ..... अतिमधुर और सुखद स्वप्न था वह। नंदनवन का एक मनोहारी कुंज । कुंज में पारिजात के पुष्प हंस रहे थे। रूपकलिका देवी रूपकोशा उस कुंज में एक पुष्पशय्या पर सो रही है। उसका सुकोमल शरीर सुकोमल पुष्पों से ढंका हुआ है। उसकी वेणी में फूल गूंथे गए हैं। पास में पारिजात पुष्पों की एक माला पड़ी है। कोशा के नयनवदन पर संगीत अठखेलियां कर रहा है। समूचे शरीर में यौवन के प्रथम प्रहर का तरंग नृत्य हो रहा है।
उस समय एक नवयुवक आता है। युवक अत्यन्त धीर और गंभीर है। उसके हाथ में सुन्दर वीणा है। उसकी कंचनवर्णी काया रसेश्वर का आभास करा रही है। उसके तेजस्वी वदन को देखकर सूर्य भी क्षणभर के लिए स्तब्ध हो जाए, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। ऐसा लग रहा था मानो कामदेव स्वयं पुरुष का वेश धारण कर आ गया हो। रूपकोशा बार-बार उस नवयुवक को देख रही है..... अरे, यह तो स्थूलभद्र ! रूपकोशा के मन हर्षभरी चंचलता उभर रही है... वह अचानक खड़ी हो गई ।
आर्य स्थूलभद्र निकट आता है। कोशा को देखकर चमकता है। कोशा उसके चरणों में मस्तक नवाकर पारिजात की माला उसके गले में पहना देती है ।
और....
तत्क्षण वह स्थूलभद्र के बाहुपाश में समा जाती है। सुख की कविता के प्रथम चरण जैसा मधुर आश्लेष !
स्वप्न सिमट जाता है। बाहर की पुष्वाटिका से पक्षियों का प्रभात गीत प्रारम्भ होता है ।... नीचे परिचारिकाएं भैरव राग का स्वरालाप कर रही थीं। चित्रा ने कोशा के शयनखंड में प्रवेश कर मधुर स्वर में कहा'देवी....!'
वह पुनः बोलती है - 'देवी! प्रभात हो चुका है। '
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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