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________________ की संगति ही क्या है ? नारीत्व की परम मंगल भावनाएं किनके चरणों में अर्पित हों। केवल राजनर्तकी का पदगौरव प्राप्त करने के लिए जीवन की मधुर आशाओं और प्राणों की संगीत - ऊर्मियों को क्या सदा-सदा के लिए मिटा देना है ? क्या मगधेश्वर की आज्ञा के बिना किसी पुरुष के साथ मैं परिचित नहीं हो सकूंगी ? मगधराज के मन का क्या यह विकार नहीं है? मैं क्यों इनके मन की तरंग के वशीभूत होकर अपने जीवन को कठोरता की चक्की में पीस डालूं ? नहीं... नहीं... नहीं... राजनर्तकी की पद गढ़े में जाए ! मगधेश्वर की समृद्धि रसातल में जाए ! मगध के सम्राट् जीवन के काव्य का मर्म नहीं जानते। नारी के हृदय को पढ़ने की आंख इनमें नहीं है। पुरुष के बिना स्त्री अधूरी है.... स्वामी के बिना नारी को तृप्ति कहां !..... पुरुषविहीन नारी को स्वर्ग के सुख भी नर्क के अंगारे जैसे प्रतीत होते हैं। विचारों की स्वरलहरी पर कोशा के प्राण थिरक रहे थे। अचानक उसका हृदय एक विचार-तरंग से प्रफुल्लित हो उठा। अरे! मगधेश्वर की आज्ञा हो जाए तो! आर्य स्थूलभद्र को मैं अपना बना लूं, क्या ऐसी आज्ञा मगधेश्वर नहीं देंगे? मगधेश्वर यदि कला के सही पुजारी होंगे तो मेरे नृत्य को देखते ही आज्ञा दे देंगे.... मगधेश्वर तो क्या, एक पत्थर भी मेरे नृत्य से पिघल जाएगा......क्या उस समय मैं अपनी मनोकामना पूर्ण नहीं कर पाऊंगी ? ओह ! ये सब कल्पनाएं किसलिए ? अभी तक तो मैंने आर्य स्थूलभद्र को पूरा देखा भी नहीं है.... मात्र वीणा वादन ! मात्र बंधन और मुक्ति के स्वर ! नौका की दिखी एक झलक मात्र । मैं इस प्रकार अधीर और आवेशमय क्यों हो रही हूं ? यदि स्थूलभद्र मेरे प्रति आकर्षित नहीं हुए तो ? तब तो इस रूप-यौवन की सार्थकता ही क्या रहेगी ? जिस वस्तु के गर्व पर मैं अपने जीवन को बनाना चाहती हूं, उसका फिर प्रयोजन ही क्या ? नहीं... नहीं....नहीं.... जीवन पराजय की सम्पत्ति नहीं है। वह तो विजय का ही गीत है। मेरे कदम-कदम पर फूल बिछे पड़े हैं। मैं कला की उपासिका हूं..... यदि समूचा विश्व कला से मुग्ध न हो जाए तो कला का गौरव ही प्राप्त कैसे हो सकता है? आर्य स्थूलभद्र को मैं अपना क्यों नहीं बना पाऊंगी ? आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International - For Private & Personal Use Only ४६ www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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