SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की ज्वाला बनी थी। वह एक भव्य कलामूर्ति थी और अपने बेजोड़ रूप के कारण ही वह वैशाली की नगरवधू बनी थी। इतना होने पर भी वह अपने रूप-यौवन को पचा नहीं सकी। वह विलासी पुरुषों के आकर्षणों को टाल नहीं सकी और एक दिन वह मगध की रसमय कविता मगध के लिए शाप बन गई। देवी आम्रपाली के दृष्टान्त को समक्ष रखकर तुझे आज निर्णय करना है कि यदि तू किसी की वधू बनकर जीना चाहती है तो अभी समय है, यह भी किया जा सकता है।' ___'मां! तुम निश्चिन्त रहो....कला का गौरव तुम्हारी कन्या के हाथ से कभी खण्डित नहीं होगा। कला के गौरव की सुरक्षा के लिए मैं अपनी सारी इच्छाओं और कामनाओं को चूर-चूर करने में कभी कंपित नहीं होऊंगी'रूपकोशा ने निर्णयात्मक स्वर में कहा। यह सुनकर सुनन्दा का चेहरा प्रफुल्लित हो गया। उसने कहा-'बेटी! चिरंजीवी रहो। अब मैं पूर्ण निश्चिन्त भाव से अपने मार्ग पर बढ़ सकूँगी।' ये शब्द सुनते ही कोशा के हर्ष-प्रफुल्लित नयन उदास हो गये। उसका प्रफुल्लित चेहरा म्लान हो गया। वह बोली- 'मां! यदि तुम्हारा यह निर्णय अटल है तो फिर मेरे कंधों पर उपाधि और चिंता का भार क्यों डाल रही हो? मेरे में ऐसी शक्ति नहीं है कि मैं तुम्हारे बिना इस भवन के विराट् बोझ को उठाकर जीवित रह सकू। मां! अधिक नहीं तो केवल पांच वर्षों के लिए तुम्हें अपना निर्णय स्थगित करना ही होगा।' ___'बेटी, मैं कोई निष्ठुर मां नहीं हूं। मेरे हृदय में मां का हृदय धड़क रहा है। तू अब चतुर, दक्ष और पारंगत बन गई है। इस भवन की समृद्धि और प्रतिष्ठा को तू निभा सकेगी, ऐसा मुझे विश्वास है। तू यौवन प्राप्त है। चित्रलेखा अभी छोटी है.....तुझे ही उसकी देखरेख करनी होगी। मुझे कोई चिन्ता नहीं है। फिर मैं इस माया-बन्धन को बनाए क्यों रखू ?' 'मां! क्या तुम घर में रहकर धर्म का पालन नहीं कर सकती?' 'बेटी! बन्धन में मुक्ति कहां! ऐसे वैभवशाली भवन में रहकर मुक्ति कैसे प्राप्त की जा सकती है? मैंने अपने जीवन में सुख का पूरा उपभोग ४३ आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy