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कुछ क्षण बीते । रूपकोशा विलेपन आदि से निवृत्त होकर तैयार हो गई। उसने कहा- 'चित्रा ! माधवी को कह देना कि वह मेरी शय्या में मुचकुन्द पुष्पों के अतिरिक्त और कोई भी फूल न बिछाए । '
'जैसी आज्ञा' - कहकर चित्रा चली गई। रूपकोशा भवन के मध्यभाग में स्थित आरामगृह में आयी । माता को नमस्कार कर बोली'आप स्वस्थ तो हैं ?'
'हाँ, बेटी!' कहकर सुनन्दा ने अन्य परिचारिकाओं को बाहर भेज दिया । सभी परिचारिकाएं खण्ड के बाहर चली गयीं। सुनन्दा ने कोशा की ओर देखकर कहा - 'कोशा ! सम्राट् ने मेरी प्रार्थना मान ली । '
'ओह.....!' कोशा के मुंह से आनन्द का यह उद्गार निकल पड़ा। उसके दोनों नयन आनन्दित होकर पुलकित हो गए।
माता ने आनन्द भरे स्वर में कहा - 'शरद् पूर्णिमा के शुभ दिन मगधेश्वर तुमको राजनर्तकी के पद-गौरव से विभूषित करेंगे।
कोशा के नयन- ददन पर जीवन की सिद्धि को व्यक्त करने वाली रेखाएं उभर आयीं ।
माता ने उत्साह से कहा - 'पुत्री ! तेरे नृत्य की परीक्षा करने के लिए स्वयं मगधेश्वर अपने घर अतिथि बनकर आयेंगे।'
'कब ?'
'शरद् पूर्णिमा से पहले ।'
'मां ! मैं उन्हें निश्चित ही प्रसन्न कर सकूंगी।'
'बेटी, मुझे यह अटल विश्वास है कि तू अपने अनोखे नृत्य से हर किसी को प्रसन्न करने में समर्थ है। इसमें मुझे तनिक भी संदेह नहीं है।
किन्तु......'
कोशा ने माता के गम्भीर चेहरे को देखा और पलभर उसे एकटक देखती ही रही ।
सुनन्दा ने कहा- 'बेटी! मगधेश्वर की एक शर्त बहुत कठोर है।' 'कौन-सी, मां?' आतुरता से कोशा ने पूछा ।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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