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६. प्रभात हुआ
रात्र का पहला प्रहर अभी शेष था। दिन में संचित ऊष्मा अभी बनी हुई थी। आकाश में बादल थे। ग्रीष्म वायु भी बादलों में स्तभित हो गया था।
दिन के आतप और परिश्रम से क्लान्त पक्षी बड़े-बड़े वृक्षों की शाखाओं पर विश्राम कर रहे थे। रजनीगंधा की सौरभ चारों दिशाओं को सुगंधित कर रही थी । चम्पा के पुष्पों की गन्ध वातावरण को मादक और मोहक बना रही थी। मानवीय प्राणों की मदभरी कविता मृदु मलय की पांखों पर चढ़कर विश्व में जहां कवि भी नहीं पहुंच पाता, ऐसी कल्पना में लीन हो रही थी ।
तथागत भगवान बुद्ध की शांत प्रतिमा के समक्ष प्रार्थना सम्पन्न कर देवी सुनन्दा आरामगृह में विश्राम कर रही थी। दो परिचारिकाएं दोनों पार्श्वों में खड़ी रहकर 'दधिपल्लव' नामक पंखे हवा झल रही थीं। दो परिचारिकाएं देवी के चरण-तल में हिमावर्त तैल का मर्दन कर रही थीं ।
देवी रूपकोशा रजनीस्नान से निवृत्त होकर वस्त्रगृह में गई। उसने शयन योग्य वस्त्र धारण किए और कपोल प्रदेश पर चन्दन आदि सुगंधित द्रव्यों का विलेपन करने के लिए चित्रा को आदेश दिया।
इतने में ही एक परिचारिका ने आकर कहा - 'देवी! मातुश्री आपको बुला रही हैं ।'
'अभी आयी', कहकर कोशा ने चित्रा से कहा- 'चित्रा ! तेरे हाथ बहुत ही मुलायम हैं ।'
'क्षमा करें, देवी ! अभी विलेपन पूरा कर रही हूं' - कहकर चित्रा विलेपन-कार्य को शीघ्रता से करने लगी ।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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