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'संसार में ऐसा कोई महान कार्य नहीं है, जिसमें विवाह बाधक बनता हो । यदि मनुष्य विवाह के उत्तरदायित्व को निभाने में असमर्थ हो या शारीरिक दृष्टि से निर्बल हो तो वह विवाह नहीं करता । किन्तु तुम्हारी स्थिति ऐसी नहीं है। तुम अपना उत्तरदायित्व समझते हो। तुम्हारा शरीर निरोग और शक्तिशाली है। ऐसी स्थिति में विवाह न करने की बात समझ में नहीं आती।' चाणक्य ने कहा ।
'मित्र! तुम्हारे से मेरे विचार छिपे नहीं हैं। तुम जानते हो कि मैं अपना जीवन अध्यात्म की ओर मोड़ना चाहता हूं। आत्म-साक्षात्कार मेरे जीवन का परम लक्ष्य है। इस लक्ष्य को उपलब्ध करने के लिए मुझे सांसारिक सुखों से विरत होना पड़ेगा। विवाह बंधन है। संसार में परम सुख है - स्त्री का संसर्ग । मैं इस सुख में डूबा रहूंगा तो कभी भी आत्मसुख को नहीं पा सकूंगा ।'
चाणक्य स्थूलभद्र के मन की बात समझ गया। उसने मुसकराते हुए कहा- 'पागल ! तुम्हारी विचारधारा अस्वाभाविक है। मैं भी मानता हूँ कि जीवन का परम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार और मुक्ति है । किन्तु प्रत्येक मार्ग में विश्राम-स्थल होते हैं । यदि तुम्हारी विचारधारा सत्य होती तो भला कुछेक तीर्थंकर विवाह क्यों करते ? महापुरुष संसार धर्म को निभाते हैं, फिर आत्मधर्म की ओर बढ़ते हैं। आत्म-दर्शन और मुक्ति का मार्ग कठोर है। संसार के भयंकर दावानल में अपनी आत्म- आहुति दिए बिना आत्मदर्शन दुर्लभ है। संसार के सुखों का आस्वादन किए बिना दुःख का भान ही नहीं हो पाता। आत्म-मुक्ति पुरुषार्थ की परम सिद्धि है । इस सिद्ध को प्राप्त करने के लिए संसार का पुरुषार्थ अपेक्षित होता है। उदीयमान यौवन के अपरिपक्व विचार मनुष्य को पथच्युत कर देते हैं । विचार, निश्चय और श्रद्धा को मजबूत बनाने के लिए संसार सबसे बड़ी कसौटी है। इस कसौटी की उपेक्षा कर कोई भी विजित नहीं होता। तुम्हारे इन उत्तम विचारों की मैं प्रशंसा करता हूं। तुम्हारी निर्मलवृत्ति का मैं समर्थन करता हूँ । किन्तु परिणाम तब आता है, जब परिपक्वता सम्पन्न होती है। आदर्श के प्रति अनुराग होना चाहिए, किन्तु आदर्श के पीछे पागलपन नहीं होना चाहिए।'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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