________________
स्थूलभद्र मौनभाव से चाणक्य को देखता रहा।
चाणक्य ने आगे कहा- 'तुम विवाह से क्यों डर रहे हो? मुक्ति में अपना पुरुषार्थ नियोजित करने वाला व्यक्ति क्या रूपवती स्त्री से डरकर संसार को तरना चाहता है! इस कायरता को हृदय में संजोकर तुम क्या आत्म-दर्शन कर पाओगे? स्थूलभद्र! तुम्हारे विचार अनुचित हैं। वे अव्यावहारिक भी हैं। तुम स्त्रियों से डरते हो। तुम्हारी परिचर्या भी पुरुष ही कर रहे हैं। तुम्हारे आवास में कोई भी स्त्री पैर नहीं रख सकती।
'तुम्हारे हृदय में स्त्री की कल्पना विषतुल्य परिणत हो रही है। यह सब क्यों? पिताजी चाहते हैं कि महाप्रतापी मगधराज की जीवनडोर तुम्हारे हाथ में आए। बहनें चाहती हैं कि उनका भाई नि:संगता से भरे नीरस जीवन का त्याग कर रस-भरा जीवन जिए। मित्र चाहते हैं कि आज का विरागी स्थूलभद्र भविष्य में मगध का सम्राट् बने। और तुम चाहते हो कि सबकी आशाओं पर पानी फिर जाए। तुम चाहते हो कि पिताजी भले ही दु:खी हों, बहनें भले ही रोती रहें, मुझे तो आत्मदर्शन करना ही है। यह पागलपन है, स्थूलभद्र ! यह मार्ग विचारपूर्वक निर्णीत नहीं है। एक बार तुम इस रसमय संसार को देखो, तुम जैसा मानते हो, वैसा अधम यह संसार नहीं है। संसार कर्तव्यपालन का स्थल है। त्याग और संसार परस्पर विरोधी होते हुए भी समान हैं।
'त्याग से संसार-समुद्र को तरा जा सकता है तो संसार से ही समुद्र तरा जा सकता है। संसार से यदि डूबा जाता है तो त्याग से भी डूबा जाता है। तरना या डूबना यह व्यक्ति का अपना निजी प्रश्न है। संसार या त्याग से संबंधित नहीं है।'
स्थूलभद्र ने उत्तर देते हुए कहा- 'विष्णु! मैं हृदयहीन नहीं हूं। मैं समझता हूं कि मेरे प्रति सबका प्रेम है, इसीलिए सभी मुझे सुखी देखना चाहता है। किन्तु मेरा हृदय कहता है कि बाहर से दिखने वाले सुख भयानक दु:खों के रंगीन रूप मात्र हैं। मेरे स्वजन यदि मुझे सही रूप में सुखी देखना चाहते हैं तो वे मुझे संसार के झंझटों में क्यों डालना चाहते हैं?'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
३०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org