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________________ महामंत्री ने संकेत किया। कुछ ही क्षणों के पश्चात् प्रचंडकाय चाणक्य ने खण्ड में प्रवेश किया। वह अपने गुरु के समक्ष आकर चरणों में लुट गया। महामंत्री ने शिष्य के गस्तक पर हाथ रखकर पूछा, 'वत्स! कुशल हो?' 'हां, आपके आशीर्वाद से'-कहकर विष्णुगुप्त नीचे बिछे एक मृगचर्म पर बैठ गया। महामंत्री ने शिष्य के तेजोमय वदन की ओर देखकर कहा, 'श्री चणकमुनि के कोई समाचार मिले ?' 'हां, आज ही वे राजगृह की ओर विहार कर गए हैं। उन्होंने आपको धर्मलाभ कहा है।' चाणक्य ने अपने संसारत्यागी पिता के समाचार कहे। यह सुनकर महामंत्री ने अपनी आंखें बन्द कर, सिर पर दोनों हाथ टिकाकर कहा, 'मैंने सुना था कि कोशांबी के तपोवन में वेदवारिधि आचार्य कुणिल ने चणकमुनि के साथ वाद किया था।' 'जी हां, उसका परिणाम भी बहुत ही सुन्दर रहा। आचार्य कुणिल वाद में हार गए। वे अपने एक सौ पचास शिष्यों के साथ हिरण्य पर्वत की ओर चले गए। वे सब भद्रबाहु स्वामी के पास दीक्षित होंगे।' विष्णुगुप्त ने कहा। 'ओह, आचार्य कुणित मिथ्यात्व के अन्धकार को पारकर सम्यक्त्व के आलोक की ओर चले गए। विष्णुगुप्त ! यह तो अच्छा ही हुआ।' 'मगधेश्वर आचार्य कुणिल के प्रति आसक्त थे, इसलिए भगवान महावीर के सम्यक् मार्ग के प्रति उनका पर्याप्त सद्भाव नहीं था। अब उनका संशय भी दूर हो जाएगा।' महामात्य के चेहरे पर सन्तोष की रेखाएं खिंच गईं। दो क्षण मौन रहकर वे पुन: बोले, 'चणकमुनि के दर्शनों की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न हुई है। एक-दो पक्ष के बाद हम राजगृह जाने के लिए सोच रहे थे। तुम भी मेरे साथ ही रहना।' 'अच्छा, मुनिश्री को वहां पहुंचने में भी कुछ दिन लग ही जाएंगे।' फिर दोनों कुछ क्षणों तक मौन रहे। विष्णुगुप्त विचारमग्न था। महामात्य ने कहा, 'विष्णु! अभी मैंने तुम्हें क्यों बुला भेजा है, क्या तुम इसकी कल्पना कर सकते हो?' आर्य स्थूलभद्र और कोशा २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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