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'कुछ कल्पना कर रहा हूं ।'
'CRIT?'
'हिमगिरि से स्वर्णसिद्धि में सफलता प्राप्त कर आए हुए सिद्धेश्वर....... चाणक्य का वाक्य पूरा हो, इससे पहले ही महामंत्री ने कहा, 'सिद्धरसेश्वर भैरवनाथ ?'
'हाँ, यही मानता हूँ।'
'सिद्धरसेश्वर की मुझे तनिक भी चिन्ता नहीं है । उसको यहां पहुंचने में अभी समय लगेगा। और महाराज पर उसका कोई वर्चस्व हो सकेगा, यह भी बात नहीं है। जो स्वर्णसिद्धि में सफलता प्राप्त करते हैं, वे राजसिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते । '
'यदि सिद्धरसेश्वर के सहयोग से महाकवि वररुचि ने मगधेश्वर पर अपना प्रभाव....'
बीच में ही हंसते हुए शडाल ने कहा, 'वररुचि तो बेचारा है, डरपोक है - मगधेश्वर को राजी रखना सरल बात नहीं है । '
'फिर आपकी चिन्ता का कारण ?'
'तू इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह दूसरों की समस्याओं को सरलता से समाहित कर पाता है, किन्तु वह अपनी ही समस्या के आगे निर्बल बन जाता है। मैं भी एक मनुष्य हूं....' महामंत्री ने कहा
चाणक्य कुछ भी नहीं समझ सका। महामंत्री ने पूछा, 'चाणक्य तू स्थूलभद्र के विषय में क्या सोचता है ?'
अकल्पित प्रश्न को सुनकर चाणक्य आश्चर्यचकित रह गया। उसने मृदु स्वर में पूछा - 'किस विषय में ?'
'विष्णु ! मैं एक वर्ष से यह देख रहा हूं कि वह दिन-दिन अत्यन्त निष्क्रिय और निर्मोही बनता जा रहा है। यौवनकाल की निष्क्रियता सुखद भविष्य का निर्माण नहीं कर पाती। उसके मन में कौन-सी बात खटक रही है अथवा उसकी इच्छा क्या है, यह भी मैं नहीं जान पाया ।' वृद्ध पिता
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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