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नग्न चित्र !
काम-विज्ञान के सूक्ष्मतम रहस्यों को अभिव्यक्त करने वाले चित्र!
मुनि की कल्पना में भी नहीं आए थे कभी ऐसे सुन्दर, उत्तेजक और संसार की मधुरता के प्रति आकर्षण पैदा करने वाले स्त्री-पुरुषों के चित्र ! मुनि का शरीर षड्स भोजन से पुष्ट हो रहा था, किन्तु मन कामचित्रों की षड़ंगी दुनिया में भटकने लगा। मुनि के मन में इन कुत्सित चित्रों को न देखने की प्रतिज्ञा क्रीड़ा कर रही थी किन्तु आंखों की पलकें बिना इच्छा
उस ओर पड़तीं और चित्रों को एक ही नजर में पी जातीं।
मुनि ने विगत वर्ष में ही सिंह की गुफा में चातुर्मास बिताया था। उस समय तप की उत्कृष्ट आराधना की थी उन्होंने। वहां एक प्रकार से उन्होंने मृत्यु पर विजय प्राप्त की थी । चार मास का कठोर उपवास भी उनके प्राणों को विचलित नहीं कर सका। वन की भयंकरता, वर्षा और तूफान की भयानकता, हिंस्र पशुओं के घोर चीत्कार आदि से भी मुनि का मन कंपित नहीं हुआ, धैर्य खंडित नहीं हुआ ।
किन्तु रूपकोशा के कामगृह ने मुनि के कोमल मन को मथ डाला। मुनि ने सोचा - जीवन को संयम की कठोर ज्वाला में झुलसाने के बदले सुखोपभोग की शीतल छाया में रखना क्या हितकर नहीं है ? इतनी घोर तपस्या के बाद भी यदि मुक्ति दृष्टिगोचर नहीं होती तो जो सुख आंखों के सामने है, उसे क्यों न स्वीकार कर लिया जाए ? मुक्ति तो परोक्ष है - यह सांसारिक सुख तो प्रत्यक्ष हैं ।
शिखर पर चढ़ने वाला मनुष्य शिखर पर चढ़ता जाता है, यह सच है और जब वह गिरता है तब सीधे नीचे आ गिरता है, यह भी सच है ।
मुनि के मन में छिपी हुई मोह की रेखा अंकुरित हुई। उनके नयनों के सामने कोशा की छवि बार-बार उभरने लगी। उनके मन में रस-मधुर काव्य की संगीत - लहरियां उछलने लगीं....कोशा कितनी सुन्दर है ? इसके प्रत्येक अंग में स्वर्ग को लज्जित करने वाला मदभरा सौन्दर्य है । यह अपने आप में एक कविता है । यौवन की कविता ! इसकी रूप-लहरियों और
आर्य स्थलभट और कोशा
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