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जीवन के अमृत के मध्य कोई भेद नहीं लगता। इसके मृदु, मधुर और गुलाबी नयन पुरुषों के हृदय-कपाट को तोड़ने में सक्षम हैं....इसकी मंजुल वाणी समग्र विश्व को पागल बना देने वाली है।
इन विचारों में खोया मन कभी-कभी पुकार उठता-नहीं....नहीं.... नहीं....! ये विचार व्यर्थ हैं। .. किन्तु मन में जागृत विकार की रेखा तत्काल कहती-कोशा ही स्वर्ग है, कोशा ही मुक्ति है और कोशा ही सिद्धि है।
___ ओह! मन में यह सब वेदना क्यों प्रकट होती है? आह! इतनी तपस्या और संयम की आराधना कर चुकने के बाद भी मन में इतनी अतृप्ति क्यों है ? फिर तप और संयम का मूल्य ही क्या है ?
मन बोल उठा-अब कोशा का उपभोग कैसे हो?
इस मानसिक वेदना में पांच दिन और बीत गए। कामगृह के चित्र मुनि के मन पर अंकित होने लगे। अनिद्रा और विलास की लालसा ने मुनि के प्राणों को झकझोर डाला। . कोशा को भी प्रतीत हुआ कि मुनि के भावों में कुछ परिवर्तन हुआ है। उसने सोचा-संभव है मुनि कुछ अस्वस्थ हों, या हो सकता है यह स्थान उन्हें प्रीतिकर न लगा हो।
कुछ ऊहापोह के पश्चात् एक दिन कोशा ने मध्याह्न के समय उनसे पूछा- 'मुनिवर! आप अस्वस्थ क्यों लग रहे हैं? कोई शारीरिक पीड़ा हो तो बताएं, मैं राजवैद्य को बुलाऊं।' ___'देवी! शरीर-पीड़ा जैसा कुछ भी नहीं है। गलत रास्ते पर खड़ा मनुष्य जब सही मार्ग को पहचान लेता है, तब उसे लगता है कि उसका अतीत व्यर्थ ही चला गया और तब वह अस्वस्थ बन जाता है। कोशा, मेरी भी यही स्थिति हो रही है।'
___ मुनि की ये बातें सुनकर कोशा विमनस्क हो गई। वह बोली-'मुनिवर! मैं आपका आशय समझ नहीं सकी। कौन-सा गलत रास्ता और कौन-सा सही रास्ता?'
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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