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________________ ५२. रूप की भूख ग्रीष्म और वर्षा का संधि-काल चल रहा था। ग्रीष्म का उत्ताप इतना प्रखर बन गया था कि प्रत्येक प्राणी वर्षा की प्रतीक्षा कर रहा था। कभी-कभी बादल आकाश में मंडराते, पर बरसते नहीं। सारा जीवलोक वर्षा के बिना आकुल-व्याकुल हो रहा था। विरह की घोर व्यथा से पीड़ित धरती अपने प्रियतम मेघ से मिलने के लिए उतावली हो रही थी। ठीक ऐसे ही समय एक दिन सूर्योदय के बाद अभिग्रहधारी मुनि ने देवी रूपकोशा के भवन के मुख्यद्वार में प्रवेश किया। मुनि को आते देख रूपकोशा का हृदय बांसों उछलने लगा और वह मुनि का स्वागत करने त्वरित गति से चली। निकट आते ही उसने मुनि को विधिवत् वंदना की। मुनि ने 'धर्मलाभ' कहकर पूछा- 'देवी रूपकोशा कहां हैं?' 'मैं ही कोशा हूं, मुनिवर! कहें, क्या आज्ञा है?' मुनिने कोशा को एड़ी से चोटी तक देखकर कहा- 'मैं मुनि स्थूलभद्र का गुरु-भाई हूं। जिस प्रकार मेरे गुरु-भाई ने आपकी चित्रशाला में षड्रसयुक्त भोजन करते हुए चातुर्मास बिताया था, उसी प्रकार मैं भी चातुर्मास यहीं बिताना चाहता हूं। तुम मुझे आज्ञा दो।' __रूपकोशा मुनि के वदन की ओर देखती रही। मुनि का वदन घोर तपस्या के कारण कठोर हो चुका था। उनके नयन भी घोर तपस्याओं के कारण तेजस्वी बन चुके थे। कोशा ने विनयपूर्वक कहा- 'महाराज ! आप प्रसन्नता से यहां रहें। मेरा सौभाग्य है कि इस वर्ष भी मुझे एक तपस्वी मुनि की उपासना करने का अवसर मिला है।' आर्य स्थूलभद्र और कोशा २७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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