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तूफान प्रारम्भ हुआ। पृथ्वी पर प्रलय हो रहा हो, इस भावना से रूपकोशा ने अपने शरीर के टुकड़े-टुकड़े पर सूचिकाओं के मार्ग में प्रवेश किया। कोशा के नयन और मन के साथ सारा विश्व अंधकारमय बन गया था। मात्र दोनों पैरों के अंगूठों पर उसका सारा शरीर नृत्य की सारी कलाएं प्रदर्शित कर रहा था।
मृदंग की विलम्बित लय द्रुत हुई।
कोशा के शरीर की लचक द्रुतगामी बनी। ओह ! यदि वह कहीं भी स्खलित हो जाए तो उसके सुकोमल चरणों में सारी सुइयां आर-पार हो जाएं! और तब जीवनभर उसकी नृत्य-साधना अधूरी रह जाए। किन्तु यह तो आषाढ का प्रथम मेघ था-तूफान, प्रलय और विनाश का अवतार!
आचार्य कुमारदेव कोशा के चरणों की ओर स्थिर दृष्टि किए बैठे थे।
मृदंग अत्यन्त द्रुत हुआ।
कोशा सूचिका पटल पर इस प्रकार नाचने लगी मानो वह आकाश में उड़ रही हो। निराश पृथ्वी पर मानो बादल पुरजोर बरसने लगा। मेघ की गड़गड़ाहट और बिजली की कड़क अति उग्र होकर मानो पराजित हो गए। मेघराज का स्वर विलम्बित हुआ। बांसुरी का नाद आशा के मधुर संदेश के साथ प्रवाहित हुआ। वीणा का स्वर शान्त हुआ। थका हुआ मेघ जैसे पृथ्वी पर आ ठहरता है, वैसे ही रूपकोशा ने नृत्य सम्पन्न किया।
आचार्य स्वयं नृत्यभूमि पर गए। सूचिका के पट को देखा, सरसों का एक भी दाना अपने स्थान से विचलित नहीं हुआ था। एक भी सूई ने कमल को नहीं बींधा था।
_ 'कोशा! धन्य है तेरी साधना। आज मैं तेरे पर परम प्रसन्न हूं, पुत्री ! मैं पुन:-पुन: तुझे आशीर्वाद देता हूं, तेरी कला भारतीय संस्कृति का तिलक बने, तेरा जीवन जगत् की प्रेरणा बने।' आचार्य ने भावभरे हृदय से कहा।
कोशा ने आचार्य के चरणों में नत होकर कहा, 'गुरुदेव! आपकी ही तपश्चर्या का यह परिणाम है।'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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