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और धूम्र घट सारे वातावरण को सुरभित कर रहा था। नृत्यभूमि के बीच में सरसों के ढेर लगे हुए थे। इनके पास में तीखी सुइयां रखी हुई थीं। प्रत्येक सुई पर एक-एक कमल रखा हुआ था। बीच में केवल पैर का एक अंगूठा मात्र टिक सके, इतना-सा स्थान खाली रखा गया था।
आचार्य ने कोशा के वाद्यनियोजकों की ओर देखकर कहा, 'सोलक! मृदंग की ध्वनि अत्यन्त गम्भीर होनी चाहिए। वैसी ध्वनि मानो कि वह आकाश के गर्भ से उठ रही हो। दक्षक! वीणा में मेघराज अत्यन्त सजीव होना चाहिए। पृथ्वी की तमन्ना, मेघ की रौद्रता और विश्व का भय तेरी वीणा के तारों से झंकृत होना चाहिए। तेरी बांसुरी से एक ही आवाज उठनी चाहिए, निराशा को मिटाने वाला एक ही स्वर उभरना चाहिए-अभी ही बादल टूटेगा और भूमि शान्त होगी। अभी ही मेघ अपनी रौद्रता को छोड़कर जीवन में आशा का संचार करेगा।'
वाद्य-नियोजकों ने तैयारी प्रारम्भ की। आचार्य कुमारदेव ने कोशा से पूछा, 'पुत्री ! आज तेरी अंतिम कसौटी है। मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है। जा, नृत्य-भूमि तेरे आगमन की प्रतीक्षा कर रही है।'
रूपकोशा गुरु और माता को नमस्कार कर नृत्यभूमि की ओर मंदगति से गई। सरस्वती और नारद की मूर्तियों को नमस्कार पर उसने नृत्य प्रारम्भ किया।
शान्त पृथ्वी पर मानो एकाएक बादल आ गए हों, इस भाव से रूपकोशा ने रौद्र रूप धारण किया। उसके नयनों से अग्नि बरस रही थी। उसकी अंगुलियों का न्यास और शरीर की मरोड़ ऐसी लग रही थी मानो वह आकाश को चीरकर बिजली का वेग धारण कर रही हो।
मृदंग अत्यन्त मृदु हो रहा था।
वीणा के स्वर मृदु-गंभीर थे, मानो पाताल से कोई ध्वनि आ रही हो। बांसुरी का नाद आशा का तेज बिछा रहा था।
कोशा के नूपुर नृत्यभूमि में रखी हुई सूचिकाओं को देखकर विजय की भावना से उतावले हो रहे थे।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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