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कोशाने गद्गद होकर आर्यस्थूलभद्र के मुनि बनजाने और चातुर्मास के लिए चित्रशाला में आने की सारी बात कह सुनाई। साथ में यह भी बताया कि स्थूलभद्र को अपनी ओर मोड़ने के लिए उसने क्या-क्या उपाय किए हैं। फिर बोली- 'बापू! आप मुझे इस दु:ख से उबारें । मैं स्वामी को प्राप्त किए बिना जी नहीं सकती। जिस स्वामी के सुख के लिए मैंने आपकी दिव्य-औषधि का सेवन किया था, वे स्वामी मेरे से विमुख होकर चले गए। उन्हें आप मुझे वापस दें। आप कोई ऐसी औषधि दें जिसके प्रभाव से मेरे विरक्त स्वामी मेरे में आसक्त हों और मेरे आंसू भरे हृदय को पुन: हंसाएं।'
'बस, इतनी-सी भिक्षा?' आचार्य ने स्मितवदन से कहा। कोशा ने मस्तक नमाया।
सिद्धरसेश्वर ने कहा- 'पुत्री! निश्चिन्त रह, तेरी इच्छा पूरी होगी। मैं तुझे एक दिव्य औषधि देता हूं। यह औषधि उत्तम पक्वान में डालकर प्रतिदिन अपने स्वामी को खिलानी है। यह बीस दिन का प्रयोग है। तेरे स्वामी का मनोबल कितना ही दृढ़ क्यों न हो अथवा त्याग और वैराग्य से कितना ही भरापूरा क्यों न हो, उसे तेरे पास आना ही पड़ेगा। यदि बीस दिन पूरे होने पर भी तेरे स्वामी का मन तेरी ओर न मुड़े तो इक्कीसवें दिन तुझे एक उत्तेजक नृत्य प्रस्तुत करना होगा। उसके प्रभाव से तेरी मनोकामना पूरी होगी।'
निराश कोशा के हृदय में एक प्रश्न उठा। उसने पूछा- 'महात्मन् ! यदि आपकी दिव्य औषधि निष्फल हो जाए तो?'
सिद्धरसेश्वर हंस पड़े। हंसते-हंसते बोले- 'पुत्री ! चिन्ता, भय या आशंका मत रखना। औषधि अपने दिव्य गुण-धर्म का कभी त्याग नहीं करती। यह औषधि सामान्य नहीं है। आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाला अतिवृद्ध ऋषि भी यदि इस औषधि का सेवन करता है तो उसका भी मन बदल जाता है....तो भला आर्य स्थूलभद्र की तो बात ही क्या है!' २६५
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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