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४८. अंतिम दाव
मध्याह्न के पश्चात् वर्षा हो चुकी थी। सारी धरती जल से आप्लावित हो गई थी। गंगा भी उछल रही थी। आकाश शांत और स्वच्छ था।
रात्रि का प्रथम प्रहर।
भारत के महान वैज्ञानिक आचार्य सिद्धरसेश्वर महात्मा भैरवनाथ आश्रम के एक कमरे में मृगचर्म पर बैठे थे। उनके पास पांच-सात शिष्य बैठे थे और ‘पारद' के विषय में चर्चा चल रही थी।
इतने में ही एक शिष्य कमरे के भीतर आया, प्रणाम कर बोला'महात्मन्! राजनर्तकी रूपकोशा आपके दर्शन करने आयी है।'
'कहां है?' 'अतिथिगृह में बैठी है। अभी-अभी आयी है।'
'उन्हें यहां भेज'-कहकर आचार्य ने दूसरे सभी शिष्यों को कमरे से बाहर जाने के लिए कह दिया।
कोशा आयी। भावपूर्ण वंदन कर उनके चरणों में नत हो गई। सिद्धरसेश्वर ने कोशा के मस्तक पर हाथ रखा और आशीर्वाद देते हुए कहा-'पुत्री! इस वृद्ध को बहुत दिनों बाद याद किया। कुशल तो हो न?'
'आपके आशीर्वाद से शरीर से सुखी हूं....आज मैं एक भिक्षा मांगने आयी हूं।'
'भिक्षा....?'
'हां, बहुत सोचने पर लगा कि आपके सिवाय मेरा दु:ख कोई भी दूर नहीं कर सकता।'
___'ऐसा कौन-सा दु:ख है, बेटी!' कहकर सिद्धरसेश्वर ने प्रसन्न दृष्टि से कोशा की ओर देखा।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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