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________________ जहां मुनि स्थूलभद्र थे उस कामगृह में नव वसंत की रचना पूर्ण हुई। सारा कामगृह कामसंदीपन के लिए उपयोगी सुगंधित द्रव्यों से महक उठा। चित्रा स्वयं कार्य को कर रही थी। उसके साथ काम करने वाली सभी दासियां सुन्दर, सुरूप और युवतियां थीं। मुनि स्थूलभद्र अपने ध्यान, स्वाध्याय में मग्न थे। आस-पास कौन है? क्या हो रहा है? इसका उन्हें कुछ भी अता-पता नहीं था। वे एक कोने में पड़े काष्ठ-पट्ट पर शांत भाव से बैठे थे। उनके नयन शांत और शीतल थे। उनका मनोभाव निर्मल और पवित्र तथा वदन सौम्य और गंभीर था। दिन का पहला प्रहर बीत गया। कोशा के समर्थ वाद्यकार नृत्यमंच के आस-पास आकर बैठ गए। रूपवती नवयौवना दासियां भी चारों ओर बैठ गईं। और.... जैसे मेघाच्छन्न आकाश की सघन अंधकारमयी रात में बिजली की एक चमक नयनों को स्तब्ध बना देती है, उसी प्रकार रूप की बिजली की एक चमक-सी कोशा कामगृह में प्रविष्ट हुई। आज कोशा का रूप कुछ अनोखा था। विश्व की किसी कामिनी ने इस प्रकार का अभिसार किया हो-यह प्रश्न मन में उभरता है। वाद्य बज उठे। कोशा के पैर थिरकने लगे। कोशा ने 'याचना' नृत्य प्रारम्भ किया। ऐसा नृत्य पहले कभी नहीं हुआ था। एक प्रहर के बाद नृत्य पुरा हुआ। नृत्य पूरा कर कोशा ने स्वामी की ओर देखा। मुनि के वदन पर किसी प्रकार की उत्तेजना नहीं थी, अशांति और चंचलता नहीं थी। वही मधुरता और मार्दव उनके मुखमंडल पर मंडरा रही थी। कोशा ने पूछा- 'स्वामी! आपका मन प्रसन्न हुआ?' 'देवी ! मेरे मन में अप्रसन्नता थी ही नहीं।' मुनि ने कहा। आर्य स्थूलभद्र और कोशा २६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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