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________________ ४५. जिनकी प्रतीक्षा थी भवन की सज-धज में कोशा स्वयं हाथ बटा रही थी। सारा भवन अपूर्व सजावट से शोभित होने लगा। आधी रात बीत चुकी थी। चित्रा ने कहा- 'देवी! अब आप शयनगृह में जाएं। आर्यपुत्र प्रात: यहां आएंगे। आपको जल्दी उठना.....' 'चित्रा ! जहां मिलन की तीव्र कामना होती है, वहां जागरण स्वास्थ्यप्रद होता है।' चित्रा देवी को देखती रही। कोशा शयनखंड में जाकर शय्या पर सो गई। उस समय उसके अंतर में प्रियतम के अनेक संस्मरण उभरने लगे। वह उन विचारों में खो गई। प्रात:काल हुआ। देवी रूपकोशा सज-धजकर प्रियतम का सत्कार करने के लिए प्रांगण में आ खड़ी हुई। कोशा आज रूप और शृंगार की मधुर प्रतिमा जैसी लग रही थी। आर्यपुत्र के अभिनिष्क्रमण के पश्चात् कोशा का यह रूप निखार पहली बार हुआ था। आज कोशा का नारीत्व गीत और कविता की तरह कोमल बन गया था। वह कमल-कमनीय कोशा प्रेममूर्ति बन गई थी। उसकी एक आंख में प्रेम छलक रहा था और दूसरी आंख में प्रतीक्षा उभर रही थी। __प्रियतम अभी तक नहीं आए। कोशा का मन अधीन हो उठा। तमन्ना प्रबल हुई। प्रतीक्षा मन को कचोटने लगी। इतने में ही कोशा ने देखा-एक अर्धनग्न तेजस्वी पुरुष द्वार प्रदेश में प्रवेश कर रहा है। उसका तेजस्वी मुखमंडल चमक रहा है। उसका अनावृत सिर और देह शोभित हो रहे हैं। उसके पास एक जीर्ण वस्त्र और आर्य स्थूलभद्र और कोशा २५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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