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स्थूलभद्र आया। उसने कहा-'गुरुदेव! एक विचित्र याचना लेकर आया हूँ। पाटलीपुत्र में मगध सम्राट् की राजनर्तकी रूपकोशा रहती है। उसके विलास-भवन में एक चित्रशाला है। उस चित्रशाला के एक विभाग में कामशास्त्र की सूक्ष्मताओं को व्यक्त करने वाले भित्तिचित्र है। मैं संयमपूर्वक षड्रसयुक्त भोजन करता हुआ उस विभाग में चार मास बिताना चाहता हूं। आप आज्ञा दें।'
स्थूलभद्र का अभिग्रह सुनकर आचार्य विचारमग्न हो गए। अभिग्रह अत्यन्त कठोर और दुरूह था। आचार्य ने ज्ञान से जान लिया कि स्थूलभद्र मुनि अपनी साधना की अंतिम कसौटी करना चाहता है। मुनि के मनोबल की कल्पना कर आचार्य ने आज्ञा दे दी।
स्थूलभद्र का अभिग्रह सुनकर अन्यान्य मुनियों को आश्चर्य हुआ। स्थूलभद्र में इस आत्म-संग्राम में अपने आपको झोंकने की तमन्ना थी। विशिष्ट अभिग्रहधारी मुनि अपने-अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। मुनि स्थूलभद्र ने भी पाटलीपुत्र की ओर प्रस्थान कर दिया। विहार करते-करते वे पाटलीपुत्र नगर के परिसर में आ गए।
महामंत्री श्रीयक को स्थूलभद्र के आगमन के समाचार मिले। कल वे नगर में प्रवेश करेंगे। तत्काल वे अपनी बहनों को साथ ले दर्शनार्थ रवाना हो गए। नगर में अनेक स्थानों पर यह सूचना फैल गई और लोग झुंड के झुंड दर्शनार्थ उमड़ पड़े।
कोशा तक यह सूचना नहीं पहुंची। वह अपने ही भवन में प्रियतम की प्रतीक्षा में समय बिता रही थी।
संध्या के पश्चात् श्रीयक कोशा के वहां गया और उसे स्थूलभद्र के आगमन की सूचना दी।
'मेरे स्वामी आए हैं? कहां हैं वे?' कोशा के नयन हर्षोत्फुल्ल हो
गए।
'आज मध्याह्न के समय वे उपवन में आए हैं और कल नगर में प्रवेश करेंगे।' श्रीयक ने कहा।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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