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४४. मुनि का अभिग्रह
चरित्र मुनि जीवन का आधार है, ज्ञान मुनि-जीवन का सत्त्व है और मुक्ति मुनि-जीवन की सिद्धि है। ज्ञातपुत्र भगवान महावीर का यह साधना-मार्ग कड़ी कसौटी करता है साधक की। सुख का सर्वथा त्याग कर चरित्र के बल पर ज्ञान की ज्योति प्रकट कर आत्मा का दर्शन करना, यह कोई सरल कार्य नहीं है। उग्र तपश्चरण के द्वारा ममत्व का विसर्जन साधना की अनिवार्य आवश्यकता है।
आचार्य संभूतविजय महाज्ञानी और महातपस्वी थे। इनका शिष्य समुदाय विशाल था। इनके शिष्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करने में तेजस्वी थे।
चातुर्मास का समय निकट आ रहा था। चातुर्मास के बिना जैन मुनि एक स्थान पर नहीं रहते। चातुर्मास में वे चार महीने तक एक ही स्थान में रहते हैं। आचार्य संभूतविजय के पास शिष्य आकर भिन्न-भिन्न स्थानों पर चातुर्मास बिताने की आज्ञा मांग रहे हैं। आचार्य सबको अनुमति दे रहे हैं। एक शिष्य ने आकर कहा–'गुरुदेव ! मैं केसरीसिंह की गुफा के पास निर्जल उपवासपूर्वक चार मास बिताना चाहता हूं। आप मुझे सहमति प्रदान करें।'
गुरुदेव ने आशीर्वाद के साथ सहमति दी।
दूसरा शिष्य आया। वह बोला- 'गुरुदेव ! मैं कुएं के पास चातुर्मास बिताना चाहता हूं। मैं निरन्तर कायोत्सर्ग करूंगा।'
गुरु ने उसे भी आज्ञा प्रदान की।
तीसरा शिष्य आकर बोला- 'गुरुदेव! मैं दृष्टिविष सर्प के बिल के पास निर्जल उपवास करता हुआ चातुर्मास बिताना चाहता हूं।' गुरु ने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक अपनी अनुमति दी।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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