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मगध की रूपकोशा को पागल बनाने वाले उस महापुरुष में कौन-सा प्राण होगा ? तुम जिसे तुच्छ वैरागी समझते हो, वह कितना उदार था ?'
सुकेतु स्थिर दृष्टि से कोशा को देखता रहा । कोशा ने सुकेतु के मनोभाव को तोड़ते हुए कहा - ' सुकेतु ! तुम यह तो जानते हो कि मेरे स्वामी स्थूलभद्र को महामंत्री का पद प्राप्त हो रहा था। उसको अस्वीकार करने में उनका त्याग था या आसक्ति ? क्या और परिचय दूं ?'
'देवी! मुझे क्षमा करें। तुमने आज मेरी आंखें खोल दीं। मैं मात्र एक तुच्छ सैनिक हूं।' सुकेतु बोल पड़ा।
'अब कहो, कोशा का धर्म क्या है ? स्वामी को भूल जाना या राजनर्तक के पद को विस्मृत कर देना ?'
'देवी! स्थूलभद्र की पूजा करना ही तुम्हारा धर्म है। तुम राजनर्तकी नहीं, सती हो ।'
'सुकेतु ! आज मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। अब तुम अपना धर्म
सोचो।'
'देवी! मैं अपने मन की बात अभी नहीं, कल कहूंगा। सुकेतु मरकर नया जन्म लेगा कल ।'
सब अपने-अपने स्थानों की ओर चले गए । कोशा भी अपने शयनकक्ष में चली गई ।
सूर्योदय हुआ । सुकेतु बहुत समय पूर्व ही कोशा के खंड के बाहर आ बैठा था । कोशा को देखकर वह खड़ा होकर बोला- 'देवी! मैंने अपने धर्म का विचार कर लिया है। आज मैं सदा-सदा के लिए यहां से विदा हो रहा
हूं।'
कोशा ने हर्षभरे नयनों से सुकेतु को देखा।
सुकेतु बोला- 'आज तक मैंने अपने जीवन को पाप के रंगों से रंगा है । मद्यपान, जुआ, व्यभिचार और विलास में मैं आकण्ठ डूबा रहा हूं। मेरी पामरता का कोई अंत नहीं । महामात्य शकडाल की मृत्यु का मूल कारण मैं ही हूं। और भी पाप मेरे पल्ले बंधे हुए हैं। क्या कहूं? तुमने मेरी आंखें खोल
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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