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नृत्य प्रारम्भ हुआ। वह मुक्ति का नृत्य था। मुक्ति का काव्य! मुक्ति की महत्त्वाकांक्षा!
कोशा की मुद्राएं और नयनों की ध्वनि बार-बार कह रही थीपुरुष, जा....जा....जा.... इस संसार में आग जल रही है....संसार नश्वर है....संसार तेरा नहीं है....तेरे साथ कोई भी वस्तु नहीं चलेगी....जा.... जा....जा.... तेरा विरामस्थान किसी दूसरी दुनिया में है....कोशा की मुद्राएं त्याग के गीत गा रही थीं।
__सुकेतु आश्चर्यविभोर हो गया। उसने सोचा-यह क्या अभिनय! थोड़े समय पूर्व जो व्यक्ति बंधन की भव्यता खड़ी करता है, वही व्यक्ति अभी बंधन की क्षुद्रता दिखा रहा है। - धन्य है साधना! धन्य है अभिनय!
नृत्य पूरा हुआ। चित्रलेखा खड़ी बहन कोशा की सिद्धि पर दिग्मूढ़ हो गई थी।
कोशा सुकेतु के समीप आकर बोली- 'सुकेतु! ऐसे हजारों नृत्य मैंने अपने स्वामी के समक्ष किए हैं, किन्तु किसी भी दिन वे पागल नहीं हुए। वे मात्र कला के उपासक के रूप में ही रहे हैं। उनकी वृत्तियां अडोल थीं। ऐसा विपुल वैभव, प्रचुर विलास, रूपवती पत्नी का सहवास और अपूर्व प्रेम उनके आस-पास दिन-रात मंडराता रहता था। फिर भी एक ही झटके में वे इन सबका त्याग कर हंसते हुए चले गए। ऐसी समृद्धि भी उन्हें नहीं बांध सकी। मेरा प्रेम भी उन्हें नहीं रोक सका। मेरा रूप भी उन्हें नहीं ललचा सका....अब तुम ही बताओ, क्या तुम्हारी आंखों के सामने ऐसा कोई महापुरुष है जो इन सब ललचाने वाली वस्तुओं को लात मारकर चला जाए?
__ 'यह है मेरे स्थूलभद्र का परिचय! मैंने अपनी कला की साधना में अपूर्व काम किया था, फिर भी मैं उनके वीणावादन की कला को देख अपने अस्तित्व को भूल जाती थी। तुम कल्पना करो कि मगध की राजनर्तकी के हृदय को पागल बनाने वाली वह कला कितनी भव्य होगी?
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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