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सुकेतु को आते देख, कोशा बोली- 'आप कुशल तो हैं?' 'हां। आप?'
'मैं तो अपने स्वामी स्थूलभद्र द्वारा पालित और पोषित इन मृगशावकों के साथ क्रीड़ा करती हुई समय बिता रही हूं।'
सुकेतु एक पत्थर के आसन पर बैठकर बोला- 'देवी! अभी मैं कुछ महत्त्वपूर्ण बात करने आया हूं। तुम अपनी दासियों को यहां से हटा दो।'
कोशा ने दासियों को जाने की आज्ञा दे दी। चित्रा वहीं रही।
सुकेतु ने चित्रा की ओर देखा । कोशा ने दृष्टि की भाषा को पढ़ते हुए कहा-'चित्रा से कोई भय नहीं है। यह मेरी दासी नहीं, सखी है।'
'कोशा! सारी रात नींद नहीं आयी।' 'यह तो आपके नयनों की लालिमा बता रही है।' 'फिर भी क्या तुम्हारी आत्मा को क्लेश नहीं हुआ?'
'सुकेतु ! मैंने सोचा था कि तुम विदर्भ से लौटकर मेरे पास नहीं आओगे। सीधे अपने भवन की ओर जाओगे। परन्तु प्रतीत होता है कि तुमने अभी तक अपनी पशुता को नहीं छोड़ा है!' कोशा ने कहा।
'कोशा! तुम राजनर्तकी हो । मुझे स्वीकार करने में तुम्हें क्या आपत्ति है ? तुम्हारा धर्म तो यह है कि तुम अतीत को भूल जाओ।'
'धर्म-अधर्म की बात छोड़ दो। मैं राजनर्तकी हूं, यह सच है किन्तु यह और अधिक सच है कि मैं एक नारी हूं। नारी का मस्तक एक ही पुरुष के चरणों में नत होता है। नारी का प्रेम एक ही स्वामी को मिलता है। नारी की साधना एक ही होती है।'
_ 'कोशा ! गृहनारी की अपेक्षा तुम्हारा नारीत्व भिन्न है।' सुकेतु आगे नहीं बोल सका।
'क्या तुम मुझे हृदय-शून्य मान रहे हो?'
'नहीं, किन्तु मैं यह समझ नहीं पा रहा हूं कि तुम स्थूलभद्र को अभी भी क्यों नहीं भुला पा रही हो? क्या था उसमें ? वह मात्र महामंत्री का पुत्र था, दूसरी कोई विशेषता उसमें नहीं थी। देख, मैं मगध की रथसेना का
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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