SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं....किन्तु मेरे एक हास्य को स्वीकार करने की भी आपमें योग्यता नहीं है।' 'कोशा ! अभी तक इस प्रकार से मेरा अपमान किसी ने नहीं किया। आज....' बीच में ही कोशा बोल उठी-'चापलूस व्यक्तियों के लिए क्या मान और क्या अपमान?' सुकेतु बोला- 'कोशा! ये बस बातें जाने दें। यदि तू मेरे प्रेम को जानती तो इस प्रकार का व्यवहार नहीं करती। तेरे प्रेम को प्राप्त करने के लिए मैंने बारह वर्षों तक तपस्या की है। इस अवधि में तेरा ही स्वप्न लेता रहा हूं, एक क्षण के लिए भी मैं तुझे विस्मृत नहीं कर सका।' 'यही तो पागलपन है। आप जिसे तप कहते हैं, वह तप नहीं, अंतर में भभकती लालसा है। इस दानवीय लालसा के वशीभूत होकर एक दिन आपने मेरे प्राणों को झकझोरा था....आपको वह वीरत्व याद रहा या नहीं?' 'देवी! उस प्रसंग के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं।' 'और वह भी आज बारह वर्षों के बाद!' 'अब उसे भूल जाना चाहिए।' 'मैं तो उसे कब की भूल चुकी हूं। मुझे तो आश्चर्य यह हो रहा है कि आप पुन: अपने आपको ठगने के लिए यहां कैसे आ गए ?' 'कैसे?' 'आपने बारह वर्ष पूर्व यह जान लिया था कि कोशा की रग-रग में, प्राण-प्राण में आर्यस्थूलभद्र बसे हुए हैं। वह कोशा क्या आज अपने प्राणेश्वर को भूल गई होगी?' 'देवी! स्थूलभद्र तो आज मुंड हो गया है।' 'रथपति! इसीलिए उनकी स्मृति मुझे बार-बार आ रही है। सम्राट का अज्ञान दूर करते-करते आपका अज्ञान मिट जाए तो अच्छा है। आप मेरे अतिथि हैं। आप आनन्दपूर्वक यहां रहें। सम्राट् की आज्ञा के अनुसार मैं आपकी परिचर्या में कोई कसर नहीं रहने दूंगी।' २३७ आर्यस्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy