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'आप जैसे अतिथियों के आगमन से विशेष कुशल हूं' कहकर कोशा
बैठ गई ।
'अतिथि!' सुकेतु के हृदय में यह शब्द चुभा । उसका मन प्रश्नों से
भर गया ।
'कोशा ! तुम मेरा परिहास तो नहीं कर रही हो ?'
'कैसा परिहास ? और उस अतिथि का, जिसको मगधेश्वर ने भेजा है ?' 'कोशा ! तुम अज्ञान को मिटा दो। मैं अतिथि के रूप में यहां नहीं
आया हूं।'
'तो फिर ?' कोशा ने प्रश्न किया ।
'स्वामी के रूप में आया हूं।'
'ओह, किन्तु आप किसके स्वामी बनकर आए हैं ?'
'राजनर्तकी रूपकोशा का ! '
'ओह!' कहकर रूपकोशा जोर से हंस पड़ी और हंसते-हंसते बोली
'लगता है सम्राट् ने आपका परिहास किया है । '
'कोशा ! तेरा हास्य मुझे विचित्र सा लगता है।'
'आयुष्मन् ! सारा संसार विचित्र है। ऐसी स्थिति में यदि मेरे हास्य विचित्रता हो तो क्या बात है।'
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'कोशा ! इन दास-दासियों के सुनते हुए मुझसे अधिक ..... । ' आप मेरे अतिथि हैं। जैसी इच्छा हो वैसी बात कह सकते हैं।' बीच में ही कोशा बोल उठी ।
'तुझे यह ज्ञात होना चाहिए कि सम्राट् ने तेरी प्रार्थना पर ही मुझे स्वामी बनाकर भेजा है।' सुकेतु ने कहा ।
कोशा सुनती रही।
सुकेतु बोला- 'सम्राट् ने तेरी याचना पूर्ण की है। क्या मैं तेरे योग्य नहीं हूं ?'
कोशा ने विनम्रता से कहा- 'क्षमा करें, जब आपने योग्यता का प्रश्न किया है तो मुझे कहना पड़ता है कि आप मेरे लिए तो योग्य हैं ही
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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