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________________ उसकी सेवा के लिए दो दासियां नियुक्त थीं। वे दोनों वृद्ध और कुरूप थीं। एक दासी ने कहा-'आयुष्मन् की जय हो। देवी ने आपकी सेवा के लिए हमें नियुक्त किया है। आप नि:संकोचपूर्वक हमें आज्ञा दें।' दासियों की ओर देखकर सुकेतु तमतमा उठा। क्या स्थूलभद्र की सेवा भी ऐसी ही दासियां करती थीं? दिन का दूसरा प्रहर भी बीत गया। रूपकोशा उससे मिलने नहीं आयी। भोजन के समय उद्दालक और दो परिचारिकाएं वहां उपस्थित थीं। इस प्रकार के विचित्र और अपमानजनक व्यवहार को देखकर सुकेतु के उल्लासपूर्ण मन को बड़ा आघात लगा। उसने सोचा-मैं यहां स्वामी बनकर आया हूं या गुलाम बनकर ? क्या मुझे इस कारावास में अकेला मूक होकर रहना पड़ेगा? कब मिलेगी कोशा? कब उसके रसभरे अधरों पर.....! दिन का तीसरा प्रहर भी बीत गया। सुकेतु अपने खण्ड में अकेला बैठा था। माधवी ने अन्दर आकर कहा-'आयुष्मन् की जय हो। देवी रूपकोशा आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं।' माधवी के शब्द सुनकर सुकेतु का कलेजा कुछ ठंडा हुआ। उसने पूछा- 'देवी कहां हैं?' 'आप मेरे साथ आएं। देवी मध्यखण्ड में बैठी हैं'-कहकर माधवी आगे चली, सुकेतु अकेला उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। मध्यखण्ड में एक आसन पर कोशा बैठी थी। उसके पास ही चित्रा भी बैठी थी। उद्दालक द्वार के पास खड़ा था। सुकेतु को मध्यखण्ड में प्रविष्ट होते देखकर कोशा उठी और मधुर स्वरों में बोली- 'पधारें, मैं आपका स्वागत करती हूं।' सुकेतु कोशा के रूप-लावण्य को देखकर अवाक् रह गया। वह क्षण भर उसकी देहयष्टि को देखता रहा। वह कितनी सुन्दर और कमनीय थी! उसने पूछा- 'देवी! कुशल तो हैं?' २३५ आर्यस्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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