SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ‘आपको एक प्रहर तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। कोई महत्त्वपूर्ण कार्य हो तो आप मुझे बताएं, मैं देवी तक पहुंचा दूंगी।' चित्रा ने कहा । 'सबसे पहले मैं यह जानना चाहता हूं कि मेरे दास-दासियों को बाहर क्यों रोका गया ?' 'आयुष्मन् ! देवी रूपकोशा को दास-दासियों की कोई आवश्यकता नहीं है, उनकी सेवा में शताधिक परिचारिकाएं और दास हैं । ' 'किन्तु मैं इन्हें अपनी सेवा के लिए लाया हूं।' 'आपकी सेवा के लिए भी यहां उचित व्यवस्था कर दी गई है।' 'दूसरे व्यक्ति मेरी प्रकृति के अनुकूल नहीं हो पाएंगे।' सुकेतु ने कहा। चित्रा बोली- 'महाराज ! देवी के साथ मैंने चर्चा कर ली है। सम्राट् सुकतु को स्वामी के रूप में भेजा है, दास-दासियों को नहीं... और देवी रूपकोशा आपकी व्यवस्था करने में अशक्त भी नहीं हैं और आप जो उपहार लाए हैं, देवी उन्हें स्वीकार नहीं कर सकती, क्योंकि वह सम्राट् का अपमान करना नहीं चाहती।' 'ओह, यह बात है....तो फिर मेरे आदमी उपहार आदि..... 'वे सब आपके भवन की ओर जा सकते हैं । ' चित्रा ने कहा । 'तेरी स्वामिनी को स्वामी की इज्जत की परवाह नहीं है। मुझे प्रतीत होता है कि इस भवन में स्थूलभद्र देवी का गुलाम बनकर रहा होगा।' 'आयुष्मन्! आप अपने निवासस्थान में विश्राम करें। मैं आपकी आज्ञा आपके दास-दासियों तक पहुंचा देती हूं।' पास में एक परिचारक खड़ा था । चित्रा ने कहा - ' महाराज को अमुक अतिथिगृह में ले जा ।' अपमानित सुकेतु क्रोध से लाल-पीला होता हुआ परिचारक के पीछे-पीछे अकेला चला। निराशा, रोष और अकुलाहट से प्रताड़ित सुकेतु उस अतिथिगृह में जा एक आसन पर बैठ गया । आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only २३४ www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy