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________________ गृहरक्षक उद्दालक आया। सुकेतु ने रोष भरे स्वरों से कहा-'क्या तू ही है गृहरक्षक?' 'हां, भंते!' 'मैं महाबाहु सुकेतुहूं। मेरे दास-दासियों को बाहर क्यों रोक रखा है?' उद्दालक ने विनम्रता से कहा- 'महाराज! देवी रूपकोशा की आज्ञा है कि केवल आप अकेले ससम्मान अन्दर आ सकते हैं, दूसरे नहीं।' 'इसका अर्थ ?' सुकेतु ने भृकुटी चढ़ाते हुए कहा। 'इसका उत्तर मैं नहीं दे सकता। आप ही देवी से बातचीत कर सकते हैं।' 'अच्छा।' कहकर सुकेतु ने कुपित नेत्रों से दास-दासी को देखते हुए कहा- 'तुम सब कुछ समय तक यहीं खड़े रहो....मैं अभी तुम सबको अन्दर बुला भेजता हूं।' सुकेतु रथ में बैठकर अन्दर गया। नवयौवना चित्रलेखा स्नानागार से वस्त्रागार में जा रही थी। रूपकोशा स्नान करने के लिए स्नानगृह में गई। चित्रा प्रांगण में खड़ी थी। सुकेतु रथ से नीचे उतरा। इतने में ही चित्रा ने आकर कहा'भारतवर्ष की परम सुन्दरी और मगध साम्राज्य की कलालक्ष्मी रूपकोशा की आज्ञा से मैं आपका सत्कार कर रही हूं। आपके निवास के लिए व्यवस्था हो चुकी है।' 'सुन्दरी कोशा कहां हैं?' 'वे स्नानागार में गई हैं। आप अपने नियुक्त वासगृह में पधारें और प्रात:कार्य से निवृत्त हों।' 'तू कौन है?' 'मैं देवी की मुख्य परिचारिका हूँ और भवन की व्यवस्थापिका हूं।' 'तू बहुत वाचाल है। मैं अभी इसी समय तेरी स्वामिनी से मिलना चाहता हूं।' सुकेतु ने कहा। २३३ आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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