________________
४२. मिथ्या मरीचिका
रथपति सुकेतु का रथ रूपकोशा के भवन के सामने आ पहुंचा। रथ को फूलों से सजाया गया था। सुकेतु भी अपने प्रौढ़ावस्था को भूलकर नवयौवना को अभिनन्दित करने आ पहुंचा था। उसकी वेशभूषा ऐसी लग रही थी मानो कोई वर अपने श्वसुरगृह के द्वार पर तोरण बांधने आया है।
अपने दास-दासियों को द्वार पर खड़ा देख सुकेतु ने आज्ञा के स्वर में कहा, 'बाहर क्यों खड़े हो? अंदर आ जाओ।'
एक परिचारक ने प्रणाम करते हुए कहा- 'अन्नदाता! भवन का द्वारपाल हमें भीतर जाने नहीं देता।'
'ओह!' कहकर सुकेतु रथ से नीचे उतरा और बोला-'कहां है द्वारपाल?' द्वारपाल सामने ही खड़ा था। उसने पूछा- 'महाराज! क्या आज्ञा है?'
'मेरे आदमियों को क्यों रोक रहे हो ?' 'आपका परिचय?' द्वारपाल ने पूछा।
'परिचय ! तू बहुत दुष्ट लग रहा है। मेरा परिचय मांगने का तुझे कोई अधिकार नहीं है। चल, हट, रास्ता छोड़ दे।'
'महाराज! देवी रूपकोशा की आज्ञा के बिना मैं किसी को भवन में प्रवेश नहीं दे सकता।' द्वारपाल ने हाथ जोड़कर कहा।
'देवी कोशा क्या कर रही हैं ?'
'यह मैं कैसे बता सकता हूं ? गृहरक्षक उद्दालक आज्ञा प्राप्त करने के लिए अन्दर गए हैं।' द्वारपाल बोला।
सुकेतु ने द्वार के मार्ग से उद्यान को देखा। वहां अनेक प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे थे।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
२३२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org