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'कोशा.... '
'भंते! आप मन की कल्पना के जाल को बिखेर दें । बारह वर्षों से संचित किये हुए मल को धो डालें। जिस आंख से कोशा को देखना है, उसी आंख से आप यदि देखेंगे तो आपका मन हल्का हो जाएगा।'
'कोशा, मैं एक सैनिक हूं। मुझे ऐसी तत्त्वचर्चा में रस नहीं है। मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि मेरा मन तेरे प्रेम से छलाछल भरा हुआ है। आज मैं तेरे चरणों में प्रेम की याचना करने आया हूं। क्या मुझे तेरा प्रेम नहीं मिलेगा ?'
कोशा ने सुकेतु की ओर देखकर कहा - 'आप सैनिक हैं, आपको रणभूमि का जितना परिचय है, उतना परिचय हृदयभूमि का नहीं है। हो भी नहीं सकता । जगत् में एक ही वस्तु ऐसी है, जो भीख मांगने से नहीं मिलती। वह मिलती है हृदय को जीतने से । वह है प्रेम ।'
'तेरा हृदय जीतने का मैं प्रयत्न करूंगा।'
'क्षमा करें, रथपति! मैं हृदयहीन बन गई हूं, क्योंकि मेरा हृदय स्थूलभद्र के पीछे चला गया है। आप मृगमरीचिका में न पड़ें।' कहकर कोशा आसन से उठ गई ।
एक नि:श्वास छोड़ते हुए सुकेतु बोला- 'मैं तुझे प्राप्त किए बिना नहीं रहूंगा।'
कोशा सुकेतु की ओर देखकर हंस पड़ी और हंसते-हंसते बोली'एक जड़ वस्तु भी सहज रूप से प्राप्त नहीं हो सकती..... यह तो सतीत्व से छलकती नारी है। आप भ्रम में न रहें ।' फिर माधवी की ओर देखकर कहा - 'सुकेतु की मर्यादा का ध्यान रखना।'
यह कहकर कोशा खंड से बाहर निकल गई।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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