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________________ 'धन्य हैं आप....किन्तु आप मगधेश्वर से मिल तो लें?' 'चित्रा! स्थूलभद्र बार-बार कहते थे कि राजा और राजपुरुष दूर से ही अच्छे लगते हैं। वे यदि कुछ अनुचित भी करते हैं तो उससे हटते नहीं, इसलिए मगधेश्वर के पास जाना व्यर्थ है।' और इधर सुकेतु के यहां वसंत के शृंगार का तिरस्कार कर देने वाला महोत्सव मनाया जा रहा था। बारह-बारह वर्षों तक संजोया स्वप्न आज साकार हो रहा था। सुकेतु कोशा के यहां जाने की पूरी तैयारी कर रहा था। वह मदिरापान में मग्न था। उसने अपने मित्र वररुचि को बुला लिया था। वररुचि को अनेक स्वर्णाभूषण भेंट में दिए । सुकेतु मानता था कि वररुचि के कारण ही वह कोशा का स्वामी बन रहा है। मूल्यवान उपहार प्राप्त करने के पश्चात वररुचि ने आशीर्वाद देते हुए कहा-देवी रूपकोशा जैसी सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी प्राप्त कर आप भाग्यवान बने हैं। कोशा के रसमय रूप-यौवन का उपभोग करते हुए आप मर्त्यलोक में स्वर्ग के सुखों का आनन्द लें।' वररुचि ने आगे कहा- 'महाराज! एक बात याद रखें। देवी रूपकोशा कामशास्त्र में अत्यन्त प्रवीण है। यदि आपको उस शास्त्र का अभ्यास न हो तो....' इतने में ही एक मित्र ने हंसते-हंसते कहा- 'महाराज युद्ध-शास्त्र में प्रवीण हैं, किन्तु देवी रूपकोशा इन्हें कामशास्त्र का पंडित बना देगी।' मित्रों ने वहां से विदाई ली। सुकेतु अपने शयनगृह की ओर गया। वहां उसकी प्रिय दासी कामंदकी प्रतीक्षा करती हुई बैठी थी। कामदंकी रूप और यौवन की देवी थी और वह सुकेतु की उपपत्नी के रूप में विगत छह वर्षों से रह रही थी। सुकेतु को देखकर कामदंकी बोली- 'महाराज! आपकी विदाई से हृदय....' आर्य स्थूलभद्र और कोशा २३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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